कला प्रेरणा का स्त्रोत

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  18-May-2023 | श्रुति गौतम




इस जगत को सुंदर, अत्यधिक सुंदर बनाने में कलाओं की भूमिका है। कलाएँ मानव की परिष्कृत रुचियों का ही प्रकटीकरण हैं। कलाओं के विविध रूप हो सकते हैं और उनके सर्जक मनुष्य ही हैं। मेहनत करता हुआ आदिम समाज शायद गुनगुनाता रहा होगा जो मानव सभ्यता के विकास क्रम में संगीत के रूप में परिणत हुआ। उसने सुरों का विकास किया, लय साधी, वाद्ययंत्र बनाया, गायन-वादन और नृत्य के सम्मिलन से संगीत प्रस्फुटित हुआ।

‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वंगमः शाश्वतीः समाः। यत्क्रौंचमिथुनादेकं वधीः काममोहितम्’॥

जब ये शब्द निकले तो शायद किसी को ज्ञात नहीं था कि यह आदि काव्य है लेकिन उत्तरोत्तर इन प्रक्रियाओं के विकास से आज साहित्य की अनगिन धाराएँ हमारे मनोभावों को तृप्त करती हैं। इसीलिए कलाओं के अन्य रूप भी दृष्टिगोचर होते हैं।

प्रेरणा किसी भी कला रचना के साथ जुड़ी हुई है। प्रेरणा के कारण ही रचनाकार अनेक क्षेत्रों में गोते लगाते हुए अपने अनुभव और विचारों से कृतियों का सृजन करता है। यह आवश्यक नहीं है कि एक चित्रकार जहाँ से और जैसे प्रेरणा ग्रहण करे ठीक वैसी ही प्रेरणा एक संगीतज्ञ या साहित्यकार ग्रहण करे। कहने का आशय स्पष्ट है कि कलाओं के लिए प्रेरणा कई रूपों में, कई जगहों से प्राप्त की जा सकती है। प्रश्न यह है कि कलाओं के इन सृजन के पीछे मनुष्य प्रेरणा कहाँ से ग्रहण करता है? भारतीय एवं पाश्चात्य वैचारिकी में इस संदर्भ में अनेक मतों का उल्लेख किया जाता है।

होरेस का कहना है कि, “उत्कृष्ट काव्य स्वस्थ चिंतन से प्रसूत होता है...जब तक रचना की इच्छा न हो अर्थात् रचना की अन्तःप्रेरणा न हो तब तक रचना में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए।” होरेस मानते हैं कि प्रेरणा व्यक्ति की भीतरी स्थिति है। भीतर से उत्पन्न होने वाली भावना काव्य रचना के लिए प्रेरणा का काम करती है। वहीं प्लेटो का मानना है कि “काव्य-सर्जन एक प्रकार के ईश्वरीय उन्माद का परिणाम है।" अपनी पुस्तक ‘इओन’ में प्लेटो इसका विस्तार करते हैं कि, “काव्यदेवी सर्वप्रथम मनुष्यों को स्वयं प्रेरित करती है....कारण कि सभी अच्छे कवि, चाहे वे महाकाव्य के रचयिता हों अथवा प्रगीत के, अपने कविता की रचना कला के द्वारा नहीं करते बल्कि इसीलिए करते हैं कि वे अंतप्रेरित और आविष्ट होते हैं।” उनकी इस बात में आविष्ट होकर काव्य-सर्जन करना एक नए विचार की ओर आकर्षित करता है। आविष्ट होने का यहाँ अर्थ प्लेटो के लिए काव्य-सर्जन में कवि केवल एक माध्यम है और वे ईश्वर को उस काव्य का रचयिता स्वीकार करते हैं। प्लेटो मानते हैं कि “कवि की रचना काल के नियमों का नहीं, बल्कि ईश्वरीय प्रेरणा का अनुवर्तन करती है। कवि में तब तक कोई नवीन उन्मेष नहीं हो सकता, जब तक अन्तःप्रेरणा न जगे।

हालाँकि कई विचारकों ने प्लेटो की इन मान्यताओं को प्रौढ़ोक्ति की उपाधि दी और इसे अतिवादी दृष्टिकोण बताया। अरस्तू भी काव्य-सर्जन को दैवीय प्रेरणा की देन मानते हैं। वे मानते हैं कि सर्जक ऐसी स्थिति में ही साधारणीकरण तक पहुँच पाता है। विश्व के ज़्यादातर मिथकों में काव्य-सर्जन की प्रेरणा ईश्वर और उनकी आराधना से ही संभव माना गया है। आधुनिक काल में सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ स्वरचित ‘सरस्वती वंदना’ में वाग्देवी से सभी प्रकार के अंधकारों को मिटाने की प्रार्थना कर जीवन में प्रेरणा रूपी प्रकाश भर लेना चाहते हैं। दार्शनिकों का मानना है कि हर व्यक्ति कला सर्जक नहीं हो सकता। जब तक व्यक्ति के पास दिव्य शक्ति नहीं आएगी वह काव्य नहीं रच पाएगा। शैले ने प्लेटो के सिद्धांत पर लिखा था कि “फीड्रस का वह अनुच्छेद कितना चमत्कारपूर्ण है।... इस युग में कवि-यशः प्रार्थी प्रत्येक व्यक्ति को इस वाक्य से प्रेरणा प्राप्त करनी चाहिए”। शैले ने भी अपने निबंध ‘इन डिफेंस ऑफ पोयट्री’ में लिखा है कि “कविता सचमुच एक दिव्य शक्ति है।.... कोई भी व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि ‘मैं कविता रचूँगा’।

काव्य प्रेरणा के स्त्रोत के रूप में अनेक यूनानी रोमन लेखकों ने इसे ईश्वरीय प्रेरणा का नाम दिया है। होमर भी अपनी रचनाओं में ‘म्यूस’ (देवी) की प्रार्थना करते हैं तथा रचनाओं को इनकी ही कृपा मानते हैं।

काव्य प्रेरणा का स्त्रोत, इस संबंध में दो धाराएं सामने आने लगीं। एक धारा जो कि काव्यशास्त्रीय सिद्धांतों पर आधारित थी और दूसरी मनोवैज्ञानिक आधार पर। ज़्यादातर दार्शनिक काव्य प्रेरणा दैवीय मानते रहे लेकिन मनोविज्ञान ने इसे मन की अवस्था बताया। फ्रायड ने ईश्वरीय या दैवीय प्रेरणा की बजाय व्यक्ति के ‘अवचेतन मानस’ को कला सर्जन में सहायक माना।

हमारा अवचेतन मन जिस तरह से निर्मित होता है, उसका प्रतिरूप कलाओं में भी देखने को मिलता है।

युंग अपने समय के एक प्रमुख मनोविश्लेषक रहे हैं। कला सृजन की प्रेरणा के संबंध में वे कहते हैं कि एक कलाकार का मन उसकी जातीय (racial) स्मृतियों से संबद्ध होता है और जब वह रचनारत होता है उनके कई रूप वहाँ परिलक्षित होते हैं।

कोलरिज और शैली जैसे रोमांटिक कवियों का भी यह मानना रहा कि काव्य प्रेरणा ईश्वर प्रदत्त है। उनका मानना था कि प्राचीन समय अधिक पवित्र था और उस दौर में ईश्वर या देवी से साक्षात्कार आसान था। ईश्वर या देवी ख़ुद कवि को प्रेरित कर उनसे काव्य रचवाते थे। 18 वीं शताब्दी में जॉन लॉक ने मानव मन का प्रतिरूप प्रस्तुत किया। जिसके अनुसार विचार मन में संगठित होकर काव्य सर्जन करते हैं। मन ही इन विचारों को काव्य रचने के लिए प्रेरित करता है। वहीं मार्क्सवादी विचारधारा का मानना है कि प्रेरणा आधार और आर्थिक अधिरचनाओं के बीच उत्पन्न संघर्ष का परिणाम है। 18 वीं शताब्दी के अंत तक काव्य प्रेरणा को आंतरिक आगमन के सिद्धांत से जोड़ दिया गया। अब किसी व्यक्ति के प्रज्ञाशील होने को ही काव्य सर्जन की प्रेरणा के रूप में देखा गया। मनोविज्ञान और मनोविश्लेषण दोनों इस बात पर जोर देते हैं कि व्यक्ति का अवचेतन और अर्द्धचेतन मन ही व्यक्ति के द्वारा सर्जित कला की प्रेरणा हैं। व्यक्ति के कुछ भी रचने की प्रेरणा उसकी अपनी भीतरी शक्ति है। यही भीतरी शक्ति उसे कला सर्जन के लिए प्रेरित करती है। इस विचारधारा का मानना है कि कला सर्जन बाह्यस्त्रोतों से संभव नहीं है बल्कि इसके लिए व्यक्ति को अपनी भीतरी विचारों पर कार्य करने की आवश्यकता है। विलियम फॉकनर ने कहा था कि “मुझे आज तक कोई भी नहीं बात सका कि मैं इसे कहाँ से प्राप्त करूँ”। वहीं ग्राहम ग्रीन लिखते हैं कि “जहाँ तक लेखन का संबंध है, हमारी दैनंदिन क्रियाएँ उसके लिए बहुत ही निरर्थक और निष्प्रयोजन प्रतीत होती हैं। व्यक्ति बाजार में खरीददारी में व्यस्त हो, आयकर का विवरण-पत्र भर रहा हो अथवा मित्रों से गपशप कर रहा हो, पर यह सबकुछ होते हुए भी अवचेतन की धारा अप्रतिहत गति से प्रवाहमान रहती है। यह समस्याओं का समाधान करती रहती है, हर स्थिति के लिए पूर्व-आयोजन करती रहती है। व्यक्ति अपने काम की मेज पर थका-हारा निराश और हताश बैठा हुआ है, और तबाही अचानक न जाने कहाँ हवा में से, आधार से शब्द आने आरंभ हो जाते हैं। कई बार ये अजस्त्र प्रवाह के रूप में, प्रपात के रूप में झरने लगेंगे। वही स्थिति जो कुछ क्षण पूर्व असाध्य, आशाविहीन, पूरी तरह से अवरुद्ध प्रतीत हो रही थी, उसमें गति, नवजीवन और प्रबल चेतना का संचार होता है। इस प्रकार व्यक्ति चाहे सो रहा हो अथवा बाजार में खरीददारी में व्यक्ति हो, अथवा मित्रों से वार्तालाप में संलग्न हो, सृजन का कार्य स्वतः ही उस अवचेतन की अंतर्धारा द्वारा सम्पन्न कर दिया जाता है।”

कला सृजन के लिए हमारा अवचेतन ज़िम्मेदार होता है। वह लगातार न जाने कितनी ही बातें व स्मृतियाँ इकट्ठा करते हुए चलता रहता है। इससे उसका मानसपटल निर्मित होता है और उसकी वह निर्मिति उसकी कला में सहायक होती है।

आज जब हम आधुनिक मनोविज्ञान की ओर रुख करते हैं तो उसमें प्रेरणा को कहीं बाह्य जगत से ज्यादा एक आंतरिक प्रक्रिया के रूप में देखने - समझने की कोशिश अधिक दिखाई पड़ती है। यह आवश्यक नहीं है कि प्रेरणाएं केवल बाह्यजगत से ही ग्राह्य हों। यह पूरी प्रक्रिया कई बार हमारे अंतर्मन का भी परिणाम हो सकती हैं। इसके अतिरिक्त कलाओं के सृजन के लिए अन्य कई जगहों से प्रेरणा मिलती है। कलाओं के लिए प्रेरणाएं कई बार स्वयं कलाएँ भी होती हैं। एक कवि अपने पूर्ववर्ती कवियों की परंपरा से सीखता है, चित्रकार अपने से पूर्व बनाए गए चित्रों के सौंदर्य से अभिभूत होता है और आगे ऐसा रच पाने के लिए प्रेरित होता है। इसी तरह से संगीत कला या अन्य कलाओं के जितने स्वरूप हो सकते हैं, उसमें पूर्ववर्ती परंपराएँ भी आगे की रचना के लिए एक प्रेरणा का कार्य करती हैं।

चूंकि मध्यकाल या उससे पूर्व के समय में हमारे समाज में ईश्वर एक केन्द्रीय सत्ता के रूप में मजबूती से रहा इसलिए हर बिंदु को ईश्वर से जोड़ देना एक सामान्य सी बात है और यही वजह है कि कलाओं को भी ईश्वर से जोड़ा गया, उसकी प्रेरणाओं को भी ईश्वर से जोड़ा गया लेकिन जैसे-जैसे समाज आधुनिक होता गया आधुनिक और वैज्ञानिक चिंतन ने कलाओं के सृजन और उसकी प्रेरणा के लिए मानव मन की गुत्थियों, मनोविज्ञान, समाज आदि विषयों पर भी ध्यान देते हुए उसको भी कला की प्रेरणा के रूप में स्वीकार किया।

  श्रुति गौतम  

असिस्टेंट प्रोफेसर (वी आई पी एस) दिल्ली



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