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कॅरियर की व्यस्तता के नाम पर रोबोट होता मनुष्य

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  30-Nov-2023 | डॉ. विवेक कुमार पाण्डेय



इंफोसिस के फाउंडर नारायण मूर्ति का पिछले दिनों एक वक्तव्य सामने आया है जिसमें उन्होंने कहा कि ‘युवाओं को चाहिये कि देश की प्रगति हेतु हफ्ते में 70 घंटे काम करें, जिससे कि भारत की विकसित देशों की श्रेणी में आने की संभावना बढ़ सके। इस वक्तव्य के बाद तमाम प्रकार के विचार निकलकर इसके पक्ष और विपक्ष में सामने आए। यहाँ प्रमुख यह प्रश्न ही निकल कर आता है कि 70 घंटों की कॅरियर के प्रति प्रतिबद्धता वाले मनुष्य के निजी जीवन में सृजनात्मकता और रचनात्मकता का क्या स्थान होगा? परिवार जिसे समाज की धुरी भी कहा जाता है, उस परिवार में उस व्यक्ति का हस्तक्षेप, नैतिक ज़िम्मेदारियाँ और निजी संबंधों की किस प्रकार की भूमिका रहेंगी?

आधुनिक जीवन शैली मानव की संवेदनशीलताओं को धीरे-धीरे खत्म करते हुए उसका मशीनीकरण करती जा रही है। तथाकथित सुख-सुविधाओं के पीछे लगातार बढ़ती भागदौड़ के कारण मनुष्य अपनी आवश्यकताओं का दास बनकर रह गया है। आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये पैसों का होना अत्यावश्यक होता है और पैसों के लिये कॅरियर को प्राथमिकता दी गयी है। महत्त्वाकांक्षी होना अच्छी बात है परंतु अति किसी भी चीज़ की हानिकारक ही होती है। मानव की प्राथमिकता अब अपने कॅरियर को ऊँचे से ऊँचे शिखर पर पहुँचाना हो गया है, जिसमें वह प्रतिद्वंद्विता की लंबी दौड़ में शामिल हो जाता है। इस दौड़ में वह अपने मानव होने के पर्याय से जैसे कि संवेदनशीलता, प्रेम, सहिष्णुता, परोपकारिता आदि को लगातार दरकिनार करता हुआ वह स्वार्थपरता की ओर बढ़ता चला जाता है।

रोबोट होने का अर्थ संवेदनाओं से शून्य होना होता है। यह कार्यों को मनुष्य से भी सटीक कुशलता के साथ सम्पन्न करने में सक्षम होते हैं, परंतु आज डिजिटलीकरण के युग में मनुष्य अपना मनुष्यत्व छोड़कर रोबोट की कार्यकुशलता से प्रभावित होकर उसकी ‘छद्म पूर्णता’ की प्राप्ति की ओर अंधी दौड़ लगा रहा है। महानगरों की जीवन शैली को सूक्ष्मता के साथ वर्णित किया जाए तो यहाँ सुबह, दोपहर और शाम के समय का कुछ पता ही नहीं चलता। सुबह घर से दफ्तर को निकले लोग रात ढलते हुए घर पहुँचते हैं, जिससे कि परिवारों को उनके समयाभाव का सामना करना पड़ता है। जहाँ माता-पिता दोनों ही कॅरियर ओरिएंटेड होते हैं, वहाँ उनके परिवारों में बच्चों के जीवन का महत्त्वपूर्ण प्रारंभिक समय एकाकीपन में ही व्यतीत होता है। दरअसल यहाँ सभी चीज़ें एक-दूसरे पर आश्रित हैं। कॅरियर और निजी जीवन के मध्य पनपता असंतुलन धीरे-धीरे समाज को भी प्रभावित करता है।

निजी जीवन के अतिरिक्त कॅरियर के चलते तनावपूर्ण जीवनशैली के कारण स्वास्थ्य अत्यधिक रूप से प्रभावित होता है। जिन सुविधाओं के चलते मनुष्य अपने जीवन की अमूल्य निधि स्वास्थ्य को भी ताक पर रखकर काम करता है और फिर स्वास्थ्य हानि के कारण उन्हीं का संभोग करने में अक्षम हो जाता है। यह घटना उसे मानसिक रूप से कष्ट पहुँचाती है। मनुष्य की बहुत बड़ी खामी है कि वह सदैव भविष्य के पीछे अपने वर्तमान की महत्ता को भुला देता है। जिस वजह से न तो वह वर्तमान का आनंद उठा पाता है और न ही भविष्य का। भविष्य तो वैसे भी अनिश्चितताओं से भरपूर ही माना जाता है, वह न जाने क्या-क्या अपने गर्त में छिपा बैठा रहता है।

रॉबिन शर्मा की एक बहु प्रसिद्ध पुस्तक ‘संन्यासी जिसने अपनी संपत्ति बेच दी’(द मोंक वू सोल्ड हिज़ फरारी) में ‘जूलियन’ नाम के काल्पनिक पात्र की कहानी को दर्शाती है। वह एक बेहद सफल व्यक्ति है, जिसके पास बहुत सी संपत्ति है। वह बड़े घर, प्राइवेट जेट और फरारी का मालिक है। वह धनवान होने के साथ-साथ बहुत मशहूर व्यक्ति भी है, परंतु इतना सब होने के बावजूद उसके भीतर संतोष नहीं था। वह और अधिक शोहरत एवं पैसे की चाहत रखता था। जिसके लिये वह दिन में अठारह घंटे काम में व्यस्त रहने लगा। इन सभी बातों का परिणाम यह निकला कि उसका वैवाहिक जीवन समाप्त हो गया और वह महज़ तिरेपन वर्ष की उम्र में अस्सी वर्ष के व्यक्ति की तरह दिखने लगा। एक दिन अचानक से कोर्ट रूम में आए हार्ट अटैक के बाद वह अपने जीवन को गंभीरता के साथ लेना शुरू करता है और जीवन की वास्तविकता को खोजने के लिये निकल गया। उपन्यास के अंत में बताया गया है कि ‘खुशियाँ मंजिल नहीं, यात्राएंँ हैं’। यह पुस्तक आधुनिक मनुष्य को बहुत कुछ सिखाती है ।

मानव प्रत्येक बढ़ते दिन के साथ संवेदनहीनता के नए-नए उदाहरण पेश करता हुआ, मानवीयता से मशीनीकरण की ओर बढ़ता जा रहा है। समाचार पत्रों और अपने आस-पास आए दिन घटित होने वाली हृदय विदारक घटनाओं से इस प्रकार के उदाहरण लिये जा सकते हैं। जिन बुज़ुर्गों को कभी परिवार की नींव और रीढ़ समझा जाता था, बदलते दौर में अब उन्हें अनुभवहीन, पुरातन विचारों वाले तथा यहाँ तक की निरर्थक तक समझकर महज़ बोझ की भाँति व्यवहार किया जाता है। भारत में लगातार वृद्धाश्रमों की संख्या में होती बढ़ोतरी हमारा ध्यान इस ओर आकर्षित करती है कि मनुष्य निजी जीवन के प्रति इस हद तक केंद्रित हो गया है कि वह अपने ही हाथों अमूल्य निधियों का तिरस्कार तक करने से नहीं चूक रहा ।

बुज़ुर्ग माता-पिता और दादा-दादी का अस्तित्व आत्मकेंद्रित प्रवृत्ति के मनुष्यों के लिये असहनीय बन जाता है। जिस अवस्था में माता-पिता को देखभाल, प्रेम और सहायता की सबसे ज़्यादा आवश्यकता होती है, इस आयु में उन्हें तिरस्कृत कर उनके आत्म सम्मान को ठेस पहुँचाकर उन्हें मानसिक कष्ट दिया जाता है। विगत कुछ वर्षों में इस प्रकार की घटनाओं में लगातार बढ़ोतरी देखने को मिल रही है। समाचार पत्रों में प्रतिदिन औसतन चार-पाँच घटनाएंँ बुज़ुर्गों से संबंधित देखी जा सकती हैं। 15 सितंबर, 2022 को द हिंदू में प्रकाशित हुए महत्त्वपूर्ण संपादकीय ‘भारत में पुराने समय का भविष्य’ वृद्धों की दयनीय होती जा रही स्थिति से संबंधित मुद्दों को यथार्थ के साथ सामने रखता है। 2036 तक भारत में बुज़ुर्गों की संख्या कुल जनसंख्या का लगभग 18% होगी। लगातार बढ़ते शहरीकरण, औद्योगिकीकरण, तकनीकी परिवर्तन और शिक्षा आदि से भारत में बहुत तेज़ी से होते परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। जिनका प्रभाव सामाजिक स्तर पर भी देखा जा सकता है। पारंपरिक मूल्यों का क्षरण हो रहा है, जिससे पीढ़ीगत बंधन कमज़ोर होते जा रहे हैं। बढ़ती निजता और संवेदनहीनता बुज़ुर्गों में अकेलेपन और अलगाव की बढ़ोतरी करती है। दो पीढ़ियों के मध्य घटता संवाद युवा पीढ़ी की संवेदनहीनता का ही परिचायक है ।

शहरों में जीवन बहुत भाग-दौड़ भरा होता है, जिस कारण लोगों के पास बैठकर बातें करने का समय शेष रह ही नहीं गया है। एकल परिवारों में गिनती के सदस्य होने के बावजूद माता- पिता के पास बच्चों के लिये और समय परिवर्तन के बाद बच्चों के पास माता-पिता के लिये इतना समय होता ही नहीं है कि परिवारों में ‘हेल्दी कनवर्सेशन’ का माहौल बनाया जा सके। तनावपूर्ण माहौल और अनकहा खिंचाव सदैव बना ही रहता है, जिसका परिणाम आगे जाकर गंभीर बीमारियों के रूप में निकलता है। कुछ वर्ष पहले तक पड़ोसियों से लोगों के घनिष्ठ संबंध रहा करते थे, परंतु ‘फ्लैट सिस्टम’ ने शहरों में इस संबंध को भी लगभग नस्तेनाबूत कर ही दिया है। आपने बहुत सी ऐसी घटनाएंँ सुनी होंगी कि वर्षों से आस-पास रहने वाले लोग एक-दूसरे से अपरिचित रहते हैं और किसी भी सुख या दु:ख का उन्हें आभास तक नहीं होता। सुख-दु:ख की घड़ी में सम्मिलित होना तो बड़ी बात लगती है उस दौर में, जिस दौर में सामने से गुजरने वाले का नाम तक न पता हो। ये सब बिंदु दर्शाते हैं कि मनुष्य हृदयहीनता की सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते जल्द ही रोबोट बनने की ओर आगे बढ़ता ही जा रहा है।

हमारे समाज में सामाजिक कार्यक्रमों की बड़ी भूमिका रही है। दूर-दूर के सगे-संबंधियों से इन्हीं कार्यक्रमों के जरिये मेल-मिलाप हो जाया करते थे। कड़े वक्त में यही सगे-संबंधी अपने बनकर दु:ख को साझा कर उसे कम करने का भरसक प्रयास किया करते थे। परंतु आज निजी व्यस्तताओं के चलते मानव के पास संबंधों को देने के लिये समय ही नहीं है। विवाह, सांस्कृतिक कार्यक्रम व सामूहिक भोज जैसे कार्यक्रमों को समय की बर्बादी बताकर उनके वैकल्पिक राह तलाशकर उनसे कटने का प्रयास किया जाता है। बेशक इनमें कुछ त्रुटियाँ व बुराइयाँ हो सकती हैं किंतु त्रुटियों अथवा बुराइयों में सुधार किया जाना चाहिये न कि सामाजिक गतिविधियों व आयोजनों का ही बहिष्कार कर दिया जाए और एक आर्थिक रूप से संपन्न किंतु सामाजिक रूप से निष्क्रिय समाज निर्मित कर दिया जाए। समय-समय पर समाज सुधार तो हमारे भारतीय समाज का अभिन्न हिस्सा ही रहा है। अगर ऐसे ही चलता रहा तो धीरे-धीरे मानव स्वयं को अत्यधिक महत्त्व देने के कारण अकेलेपन से ग्रस्त होकर मानसिक बीमारियों का शिकार हो जाएगा और उसके लक्षण दिखने भी लगे हैं। एकाकीपन का वह समय जो मनुष्य किसी ध्येय की प्राप्ति के लिये बाहरी संपर्कों को लंबे समय वक्त के लिये तोड़कर स्वयं के लिये चाहता है, वह आगे बढ़कर खालीपन, अवसाद और निराशा को जन्म देता है। मनुष्य को चाहिये कि वह विकास और सामाजिक विकास के मध्य सामंजस्य बनाकर चले न कि एकतरफा विकास करता हुआ निर्ममता और भावहीन बन जाए ।

कॅरियर के नाम पर आज प्रत्येक चीज़ यथा जीवन, स्वास्थ्य, संबंध आदि को दाँव पर लगाकर मनुष्य कॅरियर में निश्चित ही जीतना चाहता है। कॅरियर की व्यस्तता आज के मनुष्य में एक अंतहीन दौड़ की तरह शामिल हो चुकी है। मनुष्य लगातार अपनी बढ़ती ज़रूरतों में अपनी मानवीयता को खोते हुए एक मशीनीकृत रोबोट का रूप लेता जा रहा है। देश दुनिया में तेज़ी से बढ़ती पूंजीवादी अर्थव्यवस्था और नये प्रयोगों के तकनीकी विकास इसके मुख्य कारण माने जाते हैं। आज पृथ्वी पर मनुष्य पिछले कई हज़ार सालों में सबसे सुरक्षित और सबसे ज़्यादा ताकतवर प्राणी है, पर इसी के साथ मानसिक तौर पर सबसे विक्षिप्त और तनाव ग्रस्त प्राणी भी है।

इस रोबोटिक होती जा रही दुनिया में एक मनुष्य होने के नाते हम सभी को एक ऐसी दुनिया की कल्पना ज़रूर करनी होगी जिसमें प्रकृति के सभी ज़रूरी तत्त्वों की अपनी एकल पहचान और महत्त्व बचा रह सके। सभ्य होते समाज में अपनी सभ्यता-संस्कृति बचाए रखना अनिवार्य बन चुका है। ऐसे में सभी मानवीय पक्षों का समन्वय और आधुनिक होती दुनिया की कसौटी के बीच द्वंद्व होना स्वाभाविक है। अब देखना ये है कि आने वाले दशकों में मनुष्य किस तरफ अपने आपको झुका हुआ पाता है, क्या वो रोबोट होते समाज की गिरफ्त में खुद को जकड़ा हुआ पाएगा या फिर अपनी मानवीय गतिविधियों के साथ इन मशीनों पर आधिपत्य जमाए रखेगा।



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