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पढ़ाकू बनाने की होड़ में न छीने बच्चों का बचपन

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  21-Nov-2023 | शालिनी बाजपेयी



‘बड़ा होकर क्या बनेगा, पढ़ाई नहीं करेगा तो कैसे बराबरी कर पाएगा इस दुनिया के साथ, क्या सारी उम्र मैं तुझे बैठाकर खिलाता रहूँगा? बगल वाले शर्मा जी के बेटे को देखो..96 पर्सेंट नंबर लाया है, गर्व से सिर उठाकर सबसे अपने बेटे की उपलब्धि के बारे में बता रहे हैं और एक तू है कि हर विषय में कम नंबर लाया; पैरेंटस-टीचर मीटिंग में भी तेरी वज़ह से मेरा सिर झुका रहा; तुझे किसी भी चीज़ की कमी नहीं है फिर भी तू पढ़ाई नहीं करता, जब देखो दोस्तों के साथ खेलने के लिये परेशान रहता है…..। बगल वाले घर में शर्मा जी अपने 6 साल के बेटे को ज़ोर-ज़ोर से डाँट रहे थे। पास में उसकी माँ भी बैठी थी और बीच-बीच में शर्मा जी यानी अपने पति की बात का समर्थन करते हुए बोल रही थीं, आज से इसका दोस्तों के साथ खेलना, घूमना-फिरना सब बंद; ट्यूशन लगवा देते हैं, जिससे इसके पास अन्य चीज़ों के लिये वक्त ही न रहे। ये सिर्फ शर्मा जी के घर की कहानी नहीं है, बल्कि भारतीय समाज के अधिकांश घरों की कहानी है जहाँ माता-पिता अपने बच्चों को अव्वल बनाने के चक्कर में बचपन से ही उन्हें इस प्रतिस्पर्धा भरी दुनिया में झोंक देते हैं।

जी हां, यह एक कड़वा सत्य है। अधिकांश माता-पिता को लगता है कि अगर वह अपने बच्चे के भविष्य को संवारने के लिये उन पर पढ़ाई का दबाव डालते हैं तो इसमें कुछ गलत नहीं है। लेकिन कई बार यह दबाव इतना अधिक हो जाता है कि बच्चा अंदर ही अंदर घुटने लगता है और उसके भीतर आत्महत्या जैसी भावना पनपने लगती है। आधुनिक बनने और एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में माता-पिता खुद के साथ-साथ बच्चों को भी रोबोट जैसा बनाते जा रहे हैं। वे कम उम्र से ही बच्चों के नाज़ुक कंधों पर बस्तों के साथ-साथ अपनी महत्त्वाकांक्षाओं का बोझ डाल रहे हैं जो बच्चों के बालपन व कोमलता को लीलती जा रही हैं। यहाँ पर फिल्म ‘तारे ज़मीन पर’ का एक डायलॉग सटीक बैठता है- ‘’बाहर एक बेरहम कंपटेटिव दुनिया बसी है..और इस दुनिया में सभी को अपने-अपने घरों में टॉपर्स तथा रैंकर्स उगाने हैं।’’

इसके अलावा कम उम्र में ही बच्चों का स्कूल में दाखिला करा देना भी उनके बचपन को छीनने का काम कर रहा है। परिवार के बदलते स्वरूप, माताओं के कामकाजी बन जाने और बढ़ती व्यस्तताओं के बीच अब माता-पिता कम उम्र से ही अपने बच्चों को स्कूल भेजने लगे हैं। पहले के समय में पाँच साल या उसके बाद ही बच्चों को स्कूल भेजा जाता था लेकिन अब अधिकांश माता-पिता महज़ तीन साल या कहीं-कहीं उससे भी कम उम्र से बच्चों को स्कूल भेजना शुरू कर देते हैं। वे उसके अधिकारों और करियर के बारे में तो बात करते हैं मगर उसकी भावनात्मक मज़बूती के बारे में बात नहीं करते। अपने माता-पिता से बच्चे को जो मानसिक संबल व भावनात्मक पोषण मिलता है, क्या वह प्ले स्कूलों से मिलना संभव है?

दो-तीन वर्ष की उम्र के बच्चों पर लादा जा रहा शिक्षा का बोझ एक ऐसी विकृति को जन्म दे रहा है जिससे संपूर्ण पारिवारिक व्यवस्था के साथ-साथ एक पूरी पीढ़ी लड़खड़ाने वाली है। बच्चों पर डाले जा रहे इस शैक्षिक बोझ का ही परिणाम है कि आज अस्पतालों में आधे से अधिक भीड़ बच्चों की होती है। उनकी आँखों पर मोटे-मोटे चश्में लग जाते हैं, बस्तों के बोझ से उनके कंधे झुक जाते हैं और उनमें दर्द की शिकायत हो जाती है तथा आउटडोर खेलों में भाग न लेने के चलते मोटापे की समस्या भी उत्पन्न हो जाती है।

आश्चर्य की बात तो यह है कि अच्छे नंबर लाने का दबाव और भारी-भरकम किताबों के बोझ तले दबे बच्चों के लिये कोई आवाज़ भी नहीं उठाता। इसके विपरीत माता-पिता आए दिन अपने बच्चों की पड़ोसी के, उसकी कक्षा के और उसके दोस्तों के साथ तुलना करते हैं जो बहुत गलत है। वे क्यों भूल जाते हैं कि हर एक बच्चे की अपनी क्षमता है, अपनी योग्यता है और उसे उसके अनुसार जीने की स्वच्छंदता देना ज़रूरी है। अगर तुलना करनी है तो अपने बच्चों की ही क्षमता के साथ करें। उन्हें बताएँ कि कल वो कैसे थे और आज वो क्या कर रहे हैं। अगर कल की तुलना में आज वो आगे हैं तो इसका मतलब है कि आपका बच्चा सही मार्ग पर है, उस पर अनावश्यक दबाव डालना उचित नहीं है।

यहाँ बात बच्चों की है इसलिये ये प्रश्न उठना भी स्वाभाविक हैं कि क्या माता-पिता कभी अपने बच्चों से कहते हैं कि ‘तुम परेशान मत रहो हम हैं, तुम आराम से अपना बचपन जियो,..क्योंकि ये वापस नहीं आएगा।’ क्या वो कभी ये जानने की कोशिश करते हैं कि हमारे बच्चे को किस क्षेत्र में ज़्यादा दिलचस्पी है? क्या ये जानने की कोशिश करते हैं कि अगर मेरा बच्चा पढ़ाई नहीं कर रहा है तो उसकी क्या वजह हैं; कहीं वो मानसिक रूप से किसी बात से परेशान तो नहीं है? इनमें से अधिकतर प्रश्नों का जबाव होगा ‘’नहीं’’। क्योंकि अधिकांश माता-पिता कभी इस संदर्भ में विचार ही नहीं करते, उन्हें लगता है कि अभी तो ये बच्चा है इससे क्या ही पूछना; ये तो वही बनेगा जो हम चाहते हैं। और इस प्रकार वो धीरे-धीरे अपने बच्‍चों के सपनों तथा आकांक्षाओं को रौंदते चले जाते हैं।

अगर आप वाकई अपने बच्चे को सफल देखना चाहते हैं तो सबसे पहले उस पर पढ़ाई का बोझ डालना बंद करें। और ये जानने का प्रयास करें कि आपके बच्चे की दिलचस्पी किस क्षेत्र में है। उसे अपने मनपसंद के क्षेत्र को चुनने की आज़ादी दें और वो जिस क्षेत्र को चुने उसमें आगे बढ़ने में उसका सहयोग करें।

सिर्फ मार्कशीट के अंकों को देखकर अपने बच्चों की योग्यता का मूल्यांकन न करें। अगर आपके बच्चे के नंबर कम भी हैं तो उसे डाँटने व कमज़ोर महसूस कराने की बज़ाय समझाएँ कि ज़िंदगी में खुद को साबित करने के अपार मौके मिलेंगे। एक बार पिछड़ गए तो इसका मतलब यह नहीं कि आप ज़िंदगी की दौड़ में पीछे हो गए। मेरे लिये तो आप टॉपर हो। नंबर कम आने से हमारा प्यार आपके लिये कम नहीं होगा।

देखना अगली बार ज़रूर आपके मार्क्स इससे ज्यादा आएँगे। इससे बच्चे का आत्मविश्वास बढ़ेगा और अगली बार वह आपको अधिक खुश करने के लिये दोगुना मेहनत करेगा।

बच्चों की जिज्ञासाओं को शांत करें। माता-पिता दिन-भर में बच्चों से न जाने कितने प्रश्न करते हैं, ये क्या किया, क्यों किया, होमवर्क क्यों नहीं किया…आदि। लेकिन जब बच्चे माता-पिता से कुछ सवाल करते हैं तो वो उन्हें गंभीरता से नहीं लेते और कभी डाँटकर, कभी उनकी हंसी उड़ाकर या कभी नज़रअंदाज करके उनके सवालों का जवाब देने से बचते हैं। ऐसे में बच्चा धीरे-धीरे अंतर्मुखी हो जाता है और वह सवाल पूछने से डरने लगता है। उसे लगता है कि अगर वह सवाल पूछेगा तो लोग उस पर हसेंगे, उसकी खिल्ली उड़ाएँगे। इसलिये अगर आप माता-पिता हैं तो अपने बच्चों को सवाल पूछने के लिये प्रोत्साहित करें, उनके सवालों का जवाब दें, भले ही वो कितना ही बेकार प्रश्न क्यों न पूछ रहे हों। शायद आदिल मंसूरी ने इसी संदर्भ में लिखा होगा-

चुप-चाप बैठे रहते हैं कुछ बोलते नहीं,
बच्चे बिगड़ गए हैं बहुत देख-भाल से

अपने बच्चों को सही-गलत का ज्ञान कराएँ और साथ ही यह विश्वास दिलाएँ कि आप हमेंशा उनके साथ हैं। अगर बच्चे कुछ नया करने का प्रयास करते हैं और आपको लग रहा है कि उनके किये गए कार्य में काफी कमी है तो भी सीधे तौर पर कमियां न गिनाएँ। आप उनसे कहें कि वाह! तुमने तो बहुत अच्छा कार्य किया है। इसके बाद उनसे पूछें कि अच्छा.. इसे किस तरह से और सुंदर बनाया जा सकता था। ऐसे में बच्चा स्वयं ही अपनी गलतियां ढूँढेगा और उन्हें सुधारने का प्रयास करेगा तथा आपको उस पर किसी प्रकार का दबाव नहीं डालना पड़ेगा। निदा फाज़ली ने भी बच्चों के अभिभावकों से यह गुहार लगाई है-

बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो,
चार किताबें पढ़कर ये भी हम जैसे हो जाएँगे

एक और ज़रूरी बात यह है कि हम अपने बच्चों को ‘थ्री इडियट्स’ का चतुररामलिंगम नहीं बल्कि रेंचो बनाएँ यानी रट्टामार पढ़ाई के स्थान पर समझ को महत्त्व दें। उन्हें किताबी कीड़ा न बनाएँ। वरना बड़े होने पर भले ही वो डॉक्टर, इंजीनियर, प्रबंधक या अधिकारी बन जाएँ लेकिन वो इंसान के मूलभूत गुणों से वंचित हो जाएँगे। उनके पास ज्ञान तो होगा लेकिन संवेदनाएँ व भावनाएँ नहीं होंगी। इसलिए माता-पिता को अपने बच्चे के अंदर मानवीय गुणों का विकास करने पर अधिक ध्यान देना चाहिए। जिससे आगे चलकर वे ज़िंदगी में अच्छे इंसान बनें, अपने पैरों पर खड़े रह सकें और इज़्जत की ज़िंदगी व्यतीत कर सकें।

सारगर्भित रूप में कहें तो बच्‍चों को स्वयं से सीखने और विकास करने देना चाहिए। साथ ही बच्‍चों से हर क्षेत्र में अव्‍वल आने की उम्‍मीद न करें। पढ़ाई में आए नंबर ही सब कुछ नहीं होते हैं। अब समय की मांग है कि हम उन सभी रास्तों को छोड़ दें जहां बच्चों की शक्तियाँ बिखरती हैं। बच्चों को संवारना, उपयोगी बनाना और उसे परिवार की मूलधारा में जोड़े रखना एक महत्त्वपूर्ण उपक्रम है। इसके लिये हमारे प्रबल पुरुषार्थ, साफ नीयत और दृढ़ संकल्प की ज़रूरत है। बचपन है तो भविष्य है और भविष्य को संवारना हम सबकी ज़िम्मेदारी है। बचपन कितना अनमोल है इस पर बशीर बद्र लिखते है-

उड़ने दो परिंदों को अभी शोख हवा में,
फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते।



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