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तार सप्तक और अज्ञेय

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  29-May-2023 | श्रुति गौतम




हिंदी साहित्य में 1943 ई० में प्रयोगवादी कविताओं का दौर शुरु हुआ। व्यक्तिवाद इसका आधार बना, अज्ञेय ने प्रयोगवादी दौर के उन कवियों और उनकी कविताओं को संकलित करने का कार्य ‘तार सप्तक’ से प्रारंभ किया। उनकी पत्रिका ‘प्रतीक’ भी इसका माध्यम बनी। साहित्य के क्षेत्र में यह एक आंदोलन था जिसमें सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका ‘अज्ञेय’ ने निभायी। कृष्णदत्त पालीवाल जी का कहना है कि, “हिन्दी साहित्य में आधुनिक बौद्धिक संवेदना का सूत्रपात करने वाले रचनाकारों में अज्ञेय का नाम शीर्ष पर है।” 1943 ई० में हिंदी साहित्य में यह युगांतकारी आंदोलन उभरा। जिसको हम ‘तार सप्तक’ के नाम से जानते हैं। इसका प्रकाशन तो 1943 ई० में हुआ था लेकिन ऐसा कहा जाता है कि इसकी भूमिका 1940 ई० से ही बनने लगी थी। अज्ञेय के संपादित सप्तक हिन्दी साहित्य में चर्चा का विषय बने। कई बार यह चर्चा पक्ष में तो कई बार निंदा के रूप में सामने आती रही। लेकिन अज्ञेय ने संपादक की भूमिका में कोई लापरवाही नहीं बरती। चारों सप्तकों की भूमिका पढ़ते वक़्त अज्ञेय के मजबूत होने का पता चलता है। अज्ञेय ने सप्तक के प्रकाशन के साथ हिन्दी साहित्य में नयी साहित्यिक संभावनाओं के लिए जगह बनाई। यह जगह समकालीन प्रश्नों, विमर्शों और चुनौतियों से लगातार टकराते हुए बनी थी।

सप्तक चार अलग-अलग समयों में प्रकाशित हुआ। सप्तक में अज्ञेय ने उस दौर के सात कवियों को चुना। उनका चुनाव केवल कविताओं के लेखन पर आधारित नहीं था बल्कि लेखन के भीतरी अर्थ के अनुसार था । हालांकि तार सप्तक के कवियों ने प्रयोगवाद के स्थान पर प्रयोगशील शब्द का उपयोग किया। वे वाद में नहीं फँसना चाहते थे। अज्ञेय ने दूसरा सप्तक की भूमिका में लिखा है कि, “प्रयोग का कोई वाद नहीं है। हम वादी नहीं रहे, नहीं हैं। न प्रयोग अपने-आप में ईष्ट या साध्य है। ठीक इसी तरह कविता का भी कोई वाद नहीं है; कविता भी अपने-आप में ईष्ट या साध्य नहीं है। अतः हमें प्रयोगवादी कहना उतना ही सार्थक या निरर्थक है जितना हमें ‘कवितावादी’ कहना। प्रयोग अपने-आप में ईष्ट नहीं है, वह साधन है और दोहरा साधन है जिसे कवि प्रेषित करता है, दूसरे वह उस प्रेषण की क्रिया को और उसके साधनों को जानने का भी साधन है।” अज्ञेय के इस स्पष्टीकरण से यह पता चल जाता है कि तार सप्तक के कवियों ने अपनी कविताओं में प्रयोग तो किया लेकिन उसे वाद के रूप में प्रस्तुत करने के लिए नहीं बल्कि समय की माँग के अनुसार।

तार सप्तक

तार सप्तक का प्रकाशन वर्ष 1943 रहा। तार सप्तक उस दौर में चर्चा का विषय बना लेकिन इसकी भूमिका भी उतनी ही चर्चित रही। किसी भी प्रकाशन के लिए उसके संपादक का नवीन दृष्टि होना बेहद ज़रूरी है। अज्ञेय इसके पुरोधा रहे। अपनी रचनाओं से लेकर सम्पादन तक उन्होंने जीवन को चुनौतीपूर्ण समझा और उसमें हमेशा नवीन दृष्टि रखी। कृष्णदत्त पालीवाल तार सप्तक के लिए लिखते हैं कि, “तारसप्तक की भूमिका हिन्दी साहित्य में कई नवीन अवधारणाओं का घोषणा-पत्र कही जा सकती है जिसने परंपरा, आधुनिकता, प्रयोग-प्रगति, काव्य-सत्य, कवि का सामाजिक दायित्व, काव्य शिल्प, काव्य-भाषा, छंद आदि की तमाम बहसों को पहली बार उठाकर साहित्यलोचन को मौलिक स्वरूप दिया।”

इस तार सप्तक के प्रयोग में कवि अज्ञेय के समकालीन ही रहे और कह सकते हैं कि एक तरह से सहयोगी भी रहे। ये सारे कवि एक दूसरे से सोच-विचार में पूर्णतः भिन्न रहे। कुछ केवल विचारों से समाजवादी है और कुछ विचारों तथा क्रियाओं से समाजवादी तो कुछ कवि अपने व्यक्तिगत जीवन के संघर्ष और पीड़ाओं को अभिव्यक्ति देना चाहते हैं। अज्ञेय का मानना है कि काव्य के प्रति अन्वेषी की दृष्टि ही उन्हें एकसूत्र में बाँधती है। ये सभी कवि मध्यवर्गीय समाज के रहे। तार सप्तक में शिल्प गौण बना रहा। यह ज़रूरी भी था क्योंकि समाज के क़रीब होने में शिल्प की उतनी आवश्यकता नहीं है। तार सप्तक में प्रकाशित सात कवि अज्ञेय, रामविलास वर्मा, गजानन माधव मुक्तिबोध, प्रभाकर माचवे, नेमिचन्द्र जैन, गिरिजा कुमार माथुर और भारतभूषण अग्रवाल रहे। हालांकि आलोचक समाजवादी कवियों को प्रगतिशील काव्य में रखने के पक्ष में है, लेकिन फिर भी अज्ञेय ने इन सात कवियों को तार सप्तक के आरंभिक कवियों की उपाधि दी। चूंकि अज्ञेय वाद में फँसकर नहीं रहना चाहते हैं। इन कवियों ने भी अपने नए प्रयोग को केवल नयी खोज से जोड़ा ना कि किसी समय या वाद से। तार सप्तक के कवियों को यथार्थ की भूमि पर देखा गया है। वे भावुकता के स्थान पर बौद्धकिता को अपनाते हैं। ये कवि व्यक्ति की पीड़ा को अभिव्यक्ति देते हुए चिंतन की स्थिति में ला पहुँचाते हैं। अज्ञेय लिखते हैं -

“दुःख सबको मांजता है

और

चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना वह न जाने, किन्तु

जिनको मांजता है

उनको सीख देता है कि सबको मुक्त रखें।”

इस दौर की कविताओं में व्यक्ति के अन्तःसंघर्ष, क्षणों की अनुभूति, मन की भीतरी परिस्थिति पर ध्यान दिया है। इस समय व्यक्ति की अस्मिता, आत्मसंघर्ष और राजनीतिक चेतनया से समृद्ध कविताएँ भी सामने आईं। गजानन माधव मुक्तिबोध ने लिखा है कि -

“मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ!

तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है

कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है”

इस प्रकार तार सप्तक ने कविताओं के क्षेत्र में नए प्रतीक, नए उपमान, शब्द और बिम्ब सामने रखे।

दूसरा सप्तक

इसका प्रकाशन वर्ष 1951 रहा। यह सप्तक केवल प्रकाशन की दृष्टि ही नहीं बल्कि अपनी भूमिका की दृष्टि से भी ज़रूरी है। ‘तार सप्तक’ के प्रकाशन के समय हिन्दी साहित्य में कई विद्वान अज्ञेय और उनके प्रकाशन को नकार देना चाहते थे। दूसरे सप्तक की भूमिका में अज्ञेय ने उन सभी प्रश्नों, आलोचनाओं, विवादों को सरल शब्दों में उत्तर देने का प्रयास किया है। इस प्रकाशन की भूमिका में अज्ञेय ने पूर्वाग्रह से निकलने के लिए भी कहा है। उन्होंने इन नए सात कवियों को वाद के दौर से निकालने का प्रयास करते हुए कहा है कि,“प्रयोग के लिए प्रयोग इनमें से भी किसी ने नहीं किया है पर नयी समस्याओं और नये दायित्वों का तकाजा सबने अनुभव किया है और उससे प्रेरणा सभी को मिली है। दूसरा सप्तक नये हिन्दी काव्य को निश्चित रूप से एक क़दम आगे ले जाता है और कृतित्व की दृष्टि से लगभग सूने आज के हिन्दी क्षेत्र में आशा की नयी लौ जगाता है। ये कवि भी विरामस्थल पर नहीं पहुँचे हैं, लेकिन उनके आगे प्रशस्त पथ है और एक आलोकित क्षितिज-रेखा। और, फुटकर कविताओं को लें तो, जैसा कि हम ऊपर भी कह आए हैं, एक जिल्द में संख्या में इतनी अच्छी कविताएँ इधर के प्रकाशनों में कम नजर आएँगी।”

दूसरे सप्तक में भवानी प्रसाद मिश्र, शकुन्तला माथुर, हरिनारायण व्यास, शमशेर बहादुर सिंह, नरेश मेहता, रघुवीर सहाय एवं धर्मवीर भारती की रचनाएँ संकलित हैं। इन कवियों ने भाषा और अनुभव दोनों क्षेत्रों में कार्य किया। कविता लिखने के लिए जितने ज़रूरी अनुभव हैं उतनी ही महत्वपूर्ण रचना की भाषा है। इनके भाषा, शब्द और अनुभव के क्षेत्र में किए गए प्रयोग सफल भी हुए हैं और आज तक पाठकों पर अपनी छाप छोड़े हुए हैं। शमशेर अपने अंदाज़ में लिखते हैं -

"सत्य का

क्या रंग है?

पूछो

एक संग।

एक-जनता का

दुःख :

हवा में उड़ती पताकाएँ

अनेक”

इसी प्रकार भवानी प्रसाद मिश्र लिखते हैं -

“जी हाँ हुजूर मैं गीत बेचता हूँ

मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ”

इस सप्तक के कवियों ने अपनी समसामयिक प्रवृत्तियों को ध्यान में रखकर कविताएँ लिखीं। इनकी कविताएँ केवल भावना के धरातल पर ही नहीं वरन् अनुभव और शिल्प की दृष्टि से भी मजबूत हैं। इनके द्वारा किए गए कविताओं के प्रयोग आज भी उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत किए जाते हैं।

तीसरा सप्तक

अज्ञेय के अनुसार यह सप्तक संपादक की काव्य-दृष्टि और उसके काव्य-विवेक का प्रतिफलन रहा। इसका प्रकाशन समय 1959 रहा। इस सप्तक के समय नयी कविता की नींव भी साहित्यिक दुनिया में डाली जा चुकी थी। जिसके आरंभकर्ता अज्ञेय स्वयं ही हैं। कहना गलत न होगा कि इस समय की कविताओं में कुछ नयी प्रवृत्तियों का प्रभाव भी दिखाई देता है। तीसरा सप्तक में अज्ञेय लिखते हैं कि,“नई कविता का अपने पाठक और स्वयं के प्रति उत्तरदायित्व बढ़ गया है।”

इस सप्तक में कवि प्रयाग नारायण त्रिपाठी, मदन वात्स्यायन, विजयदेवनरायण साही, कुँवर नारायण, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, केदारनाथ सिंह और कीर्ति चौधरी की रचनाएँ संकलित हैं। ये कवि नयी कविता की राह पर चले लेकिन प्रयोग को साथ लेकर। इस समय की कविताएँ व्यक्ति, बौद्धिकता, आस्था और अनास्था, प्रकृति प्रेम, अनुभूतिपरकता आदि विशेषताओं को समेटे हुए थीं। इन कविताओं में जीवन की विसंगतियों से प्रभावित व्यक्ति की निराशा को भी उकेरा है।

नकेनवादियों का मानना था कि,“अज्ञेय आदि प्रयोगवादी नहीं हैं, असली प्रयोगवादी तो हम हैं।” इसका उत्तर अज्ञेय ने तीसरे सप्तक की भूमिका में भी दिया है और इस सप्तक के कवियों की कविताओं ने भी। कुँवर नारायण लिखते हैं तो प्रयोग के सारे बाँध टूट जाते हैं। वे सहज भी हैं और प्रयोग को अपनाने वाले भी। अज्ञेय को प्रयोगवादी शब्द पसंद नहीं। वे केवल अपने सप्तक में प्रकाशित कवियों को ‘प्रयोग’ करने वाले कवि मानते हैं। उनके अनुसार यह प्रयोग कविता के किसी भी क्षेत्र में संभव है। कुँवर नारायण ने लिखा है -

“ये पंक्तियाँ मेरे निकट आईं नहीं

मैं ही गया उनके निकट

उनको मनाने,

ढीठ, उच्छृंखल, अबाध्य इकाइयों को

पास आने”

नयी कविता के इस दौर में भाषा का प्रयोग भी दर्शनीय हैं। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जब लिखते हैं तो भाषा का अंदाज़ अत्यधिक सुंदर हो जाता है। जैसे -

“तेज़ी से जाते हुई कार के पीछे

पथ पर गिरे पड़े

निर्जीव सूखे पीले पत्तों ने भी

कुछ दूर दौड़ कर गर्व से कहा

हम में भी गति है,

सुनो, हम में भी जीवन है, रुको-रुको हम भी

साथ चलते हैं

हम भी प्रगतिशील हैं”

इस प्रकार तीसरे सप्तक का यह समय नयी कविता को अपने साथ आगे बढ़ाता रहा और सार्थक होता रहा। अज्ञेय ने जटिल जीवन और उसकी संवेदनाओं, साधारणीकरण और सम्प्रेषणीय समस्याओं जैसे नए बिंदुओं पर ध्यान आकर्षित करते हुए नयी कविता के लिए नयी आलोचना की आवश्यकता पर भी ज़ोर दिया।

चौथा सप्तक

बाकी तीनों सप्तकों की अपेक्षा यह विलंब से प्रकाशित हुआ। इसका प्रकाशन वर्ष 1979 रहा। इस प्रकाशन में अवधेश कुमार, राजकुमार कुम्भज, स्वदेश भारती, नंद किशोर आचार्य, सुमन राजे, श्रीराम वर्मा, राजेंद्र किशोर रहे। इस समय सात कवियों को चुनना आसान नहीं था। साहित्यिक दुनिया काफ़ी आगे बढ़ चुकी थी और हर ओर नए कवि पैदा होते दिखाई देने लगे थे। लेकिन फिर भी अज्ञेय ने इस अंतिम प्रकाशन का जिम्मा अच्छे से निभाया । अज्ञेय का मानना है कि इस प्रकाशन में संकलित कवि भले ही विचारधाराओं में एक दूसरे से भिन्न हों लेकिन भावनाओं और अनुभव से जुड़े हुए हैं। अनुभूतियाँ अलग-अलग हो सकती हैं लेकिन उनसे जुड़ी पीड़ा कई बार एक जैसी होती है। अज्ञेय चौथे सप्तक में संकलित कवियों के बारे में लिखते हैं,“कवि के संसार की स्वायत्तता का एक बोध संकलित सभी कवि की रचनाओं में मिलता है - कुछ में अधिक परिपक्व तो कुछ में कम, लेकिन सर्वत्र काव्य के स्वर में अपनी एक विशेष गूँज मिलाए हुए। यह कदाचित चौथे सप्तक के कवियों का और उनके युग की अच्छी कविता का विशेष-गुण है।”

आधुनिक हिंदी कविता में सप्तकों की भूमिका महत्वपूर्ण है और सप्तकों में अज्ञेय की भूमिका अविस्मरणीय। हर सप्तक के प्रकाशन के समय अज्ञेय ने ज़िम्मेदार भूमिका लिखी। अज्ञेय की भूमिका ही तार सप्तक को जानने के लिए काफ़ी है। यह कहना गलत न होगा कि उस युग में अज्ञेय ने एक बड़ा साहित्यिक आंदोलन केवल खड़ा ही नहीं किया बल्कि उसे सफल और सार्थक भी बनाया। सप्तकों के प्रकाशनों को कई आलोचकों ने किसी वाद का आरंभ माना है तो कइयों ने केवल नयी दिशा में खोज स्वीकार किया है। इन सबसे इतर अज्ञेय का मानना है कि यह कविताएँ कवियों की खोजी दृष्टि और नयेपन से उत्पन्न हुई हैं।

  श्रुति गौतम  

असिस्टेंट प्रोफेसर (वी आई पी एस) दिल्ली



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