पृथ्वी का स्वास्थ्य, मानव का स्वास्थ्य
« »18-May-2023 | हर्ष कुमार त्रिपाठी

पंच महाभूत तत्वों में शामिल 'पृथ्वी' के विषय में अथर्ववेद के 12वें अध्याय के प्रथम सूक्त (भूमि सूक्त) की 12वीं ऋचा इस प्रकार उद्धृत है-
ध्यं पृथिवि यच्च नभ्यं यास्त ऊर्जस्तन्वः संबभूवुः ।
तासु नो धेह्यभि नः पवस्व माता, भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः ।
पर्जन्यः पिता स उ नः पिपर्तु ॥१२॥
अथर्ववेद का यह मंत्र पृथ्वी और मानव के बीच में माता और संतान का संबंध स्थापित करता है। इसका अर्थ है कि “हे देवी पृथ्वी, आपके भीतर एक पवित्र ऊर्जा का स्रोत है, हमें उस ऊर्जा से पवित्र करें।
हे देवी पृथ्वी, आप मेरी माता हैं और पर्जन्य (वर्षा के देवता अर्थात मेघ) मेरे पिता हैं। आप दोनों ही मिलकर हमारा लालन-पालन करते हैं।"
परंतु वर्तमान में जो मानवीय क्रियाकलापों से जो स्थिति निर्मित हुई है, ऐसा लगता है कि हम अपने प्राचीन साहित्य में लिखी इन बातों को सर्वथा विस्मृत कर चुके हैं। भूगोल में विलियम रीस और मेथिस वॉकरएंजल ने 'परिस्थितिकी फुटप्रिंट' की संकल्पना विकसित की जिसके अंतर्गत 'पृथ्वी/अर्थ ओवरशूट (Earth Overshoot)' नामक अवधारणा दी गई है। 'अर्थ ओवरशूट' किसी वर्ष में 1st जनवरी के बाद एक काल्पनिक बिंदु माना गया है जहाँ तक उस वर्ष में पृथ्वी द्वारा उत्पादित संसाधनों और उनके उपभोग में साम्य बना रहता है अर्थात् इस बिंदु तक परिस्थितिकी संतुलन बना रहता है। परंतु इसके बाद जो उपभोग होता है वह पृथ्वी की संसाधन उत्पादन क्षमता या धारक क्षमता (बायोकैपेसिटी - Biocapacity or Carrying capacity) के परे माना जाता है और अगले वर्ष में दर्ज किया जाता है। वर्ष 2022 में अर्थ ओवरशूट बिंदु 28th जुलाई को प्राप्त माना गया, अर्थात् 29th जुलाई से 31st दिसम्बर, 2022 तक हमने जो कुछ संसाधन उपभोग किये, उन्हें वास्तव में 2023 में उपभोग किया जाना था। अपनी पृथ्वी माता की हम क्या दुर्गति कर रहे हैं, यह इसी से स्पष्ट होता है।
प्रकृति-मानव सम्बन्धों में सदैव ही बदलाव होता रहा है। पहले जब व्यक्ति को भौतिक जगत के नियमों, परिघटनाओं की वैज्ञानिक जानकारी नहीं थी तब प्रकृति 'स्वामी' व मनुष्य 'दास' की भूमिका में था। जैसे-जैसे व्यक्ति का दिमाग विकसित होता गया, वैसे-वैसे वह भौतिक जगत के नियमों को समझता गया। विज्ञान और प्रौद्योगिकी में मनुष्य के द्वारा धीरे-धीरे विकास होता गया और फिर वह स्थिति आयी कि व्यक्ति 'स्वामी' बन बैठा और प्रकृति को 'दास' समझ लिया गया। इसे 'सम्भववादी विचारधारा' कहते हैं। वर्तमान में मानवीय गतिविधियों के ही कारण स्थलमण्डल, जलमण्डल और वायुमण्डल, अर्थात सम्पूर्ण जैवमण्डल में नकारात्मक परिवर्तन देखे जा रहे हैं जिनके कारण हमारी पृथ्वी माता की स्थिति बद-से-बदतर होती जा रही है। मानव भस्मासुर बन गया है और बिना कुछ विचार किये स्वयं अपने ही सिर पर हाथ रखकर नाच रहा है। यह स्थिति इसी सम्भववादी विचारधारा के विकृत स्वरुप के कारण आयी है। मानव शायद भूल बैठा है कि मानव -प्रकृति संबंध दो-तरफा और अभिन्न है।
पृथ्वी पर मनुष्य के अस्तित्व को बनाये रखने के लिये '5 प्रकार की सुरक्षा' बहुत आवश्यक है। ये मानव जीवन के स्तंभ हैं जिनकी अनुपस्थिति में पृथ्वी पर मानव जीवन असंभव है -
1. खाद्य सुरक्षा।
2. जल सुरक्षा।
3. ऊर्जा सुरक्षा।
4. जैव विविधता।
5. मानव स्वास्थ्य व आधारभूत संरचना सुरक्षा।
कहने की आवश्यकता नहीं है कि इन पाँचों स्तंभों का मूल आधार पृथ्वी का स्वास्थ्य ही है। इसे इस प्रकार से समझा जा सकता है -
1. खाद्य सुरक्षा व पृथ्वी - खाद्य सुरक्षा एक वृहत विषय है जिसमें उत्पादन, गुणवत्ता, पहुँच व वितरण के पक्ष शामिल हैं। हम यहाँ उत्पादन व गुणवत्ता को समझेंगे।
- पृथ्वी पर अपने जन्म के बाद से मनुष्य ने जो सबसे महत्त्वपूर्ण आविष्कार किये, कृषि कार्य उनमे से एक था। फिर जिस दर से पृथ्वी पर जनसंख्या बढ़ी, लोगों का पेट भरने के लिये सीमित भूमि पर अधिकाधिक उत्पादन की जरूरत हुई और मनुष्य ने अंधाधुंध व मनमाने तरीके से रासायनिक खादों और कीटनाशकों का प्रयोग किया। उत्पादन तो बढ़ा परंतु आज इतने वर्षों बाद इसके भयावह परिणाम हमारे सामने हैं। भारत के समृद्धशाली राज्य पंजाब के बठिंडा और बीकानेर (राजस्थान) के बीच चलने वाली एक पैसेंजर ट्रेन को लोग "कैंसर एक्सप्रेस" कहते हैं क्योंकि इसके ज्यादातर यात्री बीकानेर स्थित कैंसर अस्पताल में इलाज करवाने जाते हैं। पंजाब में दीर्घावधि में यूरिया, रासायनिक खादों, कीटनाशकों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होने के कारण मिट्टी जहरीली हो चुकी है और भूमिगत जल भी मर्करी, कैडमियम, आर्सेनिक जैसे तत्वों से भयंकर प्रदूषित हो चुका है। दीर्घकाल में ये विषैले तत्व वहाँ के लोगों की खाद्य श्रृंखला में भी शामिल हो चुके हैं। इसी का परिणाम उस क्षेत्र में कैंसर के रूप में दिखता है।
- विशेषतः हिमालयी क्षेत्रों और पश्चिम घाट क्षेत्र में कृषि का रकबा और रिहाइश हेतु अत्यधिक निर्वनीकरण हुआ है जिससे पहाड़ बहुत कमजोर और भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं के प्रति अति सुभेद्य हो गये हैं।
2. जल सुरक्षा व पृथ्वी - पृथ्वी पर 75% भाग महासागरीय क्षेत्र है जिनसे जलवायुवीय आधार पर, शेष 25% स्थलीय भाग पर रहने वाले लोग प्रभावित होते हैं। भारत की मॉनसून परिघटना, महासागरीय धाराओं का संचलन आदि प्रक्रियाएं समुद्रों की स्थिति व समुद्री जल के विशिष्ट भौतिक गुणों (लवणता, तापमान आदि) के कारण है। ग्रीन हाऊस प्रभाव, वैश्विक ऊष्मन जैसे कारणों से इन भौतिक गुणों में नकारात्मक परिवर्तन होने के कारण पृथ्वी की बहुत बड़ी आबादी के सामने अस्तित्व का प्रश्न खड़ा हो गया है। भारत में 50% से अधिक कृषि क्षेत्र मॉनसून पर निर्भर है, अतः इस भयावहता का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
- केवल यही नहीं, अपनी परम पूज्य नदियों के साथ हमने बहुत बुरा बर्ताव किया है। देश में करोड़ों लोगों के जीवन का आधार गंगा, यमुना, कावेरी जैसी नदियों में व्याप्त प्रदूषण वर्तमान में भयानक बीमारियों की जड़ बन रहा है। इसके अलावा वैश्विक ऊष्मन के प्रभाव से गंगोत्री, यमुनोत्री जैसे हिमनद भी तेजी से पिघल रहे हैं जिससे नदियों के अस्तित्व पर ही संकट खड़ा हो गया है।
- भूमिगत जल भंडार भी हमारी कारगुजारियों से बचा नहीं है। कृषि में रसायनों, कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग से भूमिगत जल में भी लेड, कैडमियम, पारा जैसे तत्व घुल रहे हैं और उसे बर्बाद कर रहे हैं।
3. ऊर्जा सुरक्षा व पृथ्वी - बढ़ती आबादी के साथ ऊर्जा के परंपरागत स्रोतों की वर्तमान में अत्यधिक खपत हो रही है, ऐसे में इन स्रोतों के समाप्त होने का खतरा बढ़ गया है। इसके अतिरिक्त ये स्त्रोत प्रदूषण और ग्रीन हाऊस प्रभाव का सबसे बड़ा कारण हैं और मनुष्य के स्वास्थ्य व पृथ्वी के वायुमण्डल पर विपरीत प्रभाव डाल रहे हैं, अतएव वैकल्पिक ऊर्जा स्त्रोतों की अधिक आवश्यकता है।
4. जैव विविधता व पृथ्वी - किसी पारितंत्र में यह स्वचालित क्षमता (automatic ability) होती है कि यदि एक सीमा के भीतर उसे कोई नुकसान पहुँचता है तो वह उसे स्वयं सुधार सकता है। इसे होम्योस्टेसिस क्रियाविधि कहते है जो उस तंत्र की खाद्य श्रृंखला, खाद्य जाल व भू-जैव रासायनिक चक्रों (Bio geochemical cycle) के कारण होती है। लेकिन यदि यह उस सीमा से परे हो तो पारितंत्र और उसमे शामिल जीवधारियों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। संभववाद से प्रेरित होकर मनुष्य ने सभी पारितंत्रों को अत्यधिक हानि पहुंचायी है जो अभी भी जारी है। प्राकृतिक आवास विनाश (habitat destruction), निर्वनीकरण, आक्रमणकारी प्रजातियों (invasive species) की बढ़ती संख्या, वैश्विक तापन आदि मानवीय कारणों से खाद्य श्रृंखला, खाद्य जाल, भू-जैव रासायनिक चक्रों की व्यवस्था नष्ट हो रही है। जैव विविधता को भयंकर नुकसान हुआ है और जिसका पर्यावरणीय व आर्थिक दुष्प्रभाव स्वयं मानव पर पड़ रहा है। इन गतिविधियों से कितनी ही प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी है और अब तो वैश्विक तापन से भी स्तनधारियों के विलुप्त होने की शुरुआत हो चुकी है।
5. मानव स्वास्थ्य, आधारभूत संरचना सुरक्षा व पृथ्वी - उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि इन सभी दुष्प्रभावों की अंतिम परिणति मानव स्वास्थ्य के नष्ट होने में होती है। वायु, जल और मृदा प्रदूषण इस सीमा तक बढ़ चुका है कि अब कैंसर जैसे रोग आम होते जा रहे हैं। WHO ने तो 2050 तक भारत के 'विश्व की कैंसर राजधानी' होने की भविष्यवाणी भी की है। वैश्विक तापन के प्रभाव से प्रशांत महासागर के द्वीपीय क्षेत्रों में 'क्लाईमेट रिफ्यूजी' की समस्या भी फैल चुकी है जो आगे और बढ़ेगी। जलवायु परिवर्तन से आने वाले समय में कृषि की उत्पादकता गिरती जायेगी यह चेतावनी भी दी जा चुकी है। आधारभूत संरचना विकास से वशीभूत होकर हमने हिमालय व पश्चिम घाट क्षेत्रों में जो निर्वनीकरण और डायनामाइट विस्फोट किये हैं, और जो फ्लड प्लेन पर घर और होटल बना दिये हैं, उन्होंने स्थिति को और संवेदनशील बना दिया है। केदारनाथ त्रासदी (2013) व जोशीमठ की हालिया घटनायें सिर्फ एक बानगी भर हैं।
- ऐसा नहीं है कि मानव-जाति और पृथ्वी को इस बर्बादी से बचाने के प्रयास नहीं हुये हैं। पृथ्वी सम्मेलन, रियो (1992) से लेकर UNFCC COP-27, मिस्र (2022) तक इनकी लम्बी फेहरिस्त है लेकिन यह भी वास्तविकता है कि मात्र मांट्रियल प्रोटोकॉल (1987) को सफल व क्योटो प्रोटोकॉल (1997), शर्म-अल-शेख सम्मलेन (2022) आंशिक सफल माना जा सकता है। शेष अवसरों पर विश्व के शीर्ष नेता उस राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन नहीं कर सके जैसी उनसे उम्मीद थी। किसी NGO या ग्राम पंचायत द्वारा किये गये प्रयास (जैसे पीपलांत्री गाँव, राजसमंद, राजस्थान) ऊंट के मुँह में जीरा जैसे ही होंगे।
हमारे वैदिक साहित्य में, मानव जीवन हेतु 'पृथ्वी' के महत्व को देखते हुये, उसके प्रति आदर भाव अति उच्च है जो विश्वामित्र स्मृति के निम्न श्लोक से परिलक्षित होता है–
समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले ।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्वमे ॥
अर्थात् "समुद्र जिसके वस्त्र, व पर्वत जिनके पयोधर हैं, भगवान विष्णु की पत्नी स्वरूपा उन पृथ्वी देवी के प्रति मैं क्षमाप्रार्थी हूँ जो प्रात: काल ही उन्हें पैरों से स्पर्श करता हूँ।"
अब आवश्यकता है कि इन बातों को मात्र शास्त्रों में यूँ ही लिखा न छोड़ दिया जाये अन्यथा भविष्य में शास्त्र पढ़ने के लिये भी लोग नहीं होंगे। पृथ्वी हमारा घर है, और अपने हाथों से अपना ही घर बर्बाद कोई नहीं करना चाहेगा।
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हर्ष कुमार त्रिपाठीहर्ष कुमार त्रिपाठी ने पूर्वांचल विश्वविद्यालय से बी. टेक. की उपाधि प्राप्त की है तथा DU के दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स से भूगोल विषय में परास्नातक किया है। वर्तमान में वे शिक्षा निदेशालय, दिल्ली सरकार के अधीन Govt. Boys. Sr. Sec. School, New Ashok Nagar में भूगोल विषय के प्रवक्ता के पद पर कार्यरत हैं। |
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