राज्यों में राज्यपाल की भूमिका और विवाद
« »09-May-2023 | अजय प्रताप तिवारी

भारतीय लोकतंत्र संसदीय प्रणाली पर आधारित है। यहाँ पर कार्यपालिका और न्यायपालिका के कार्य और शक्तियाँ संविधान द्वारा निर्धारित की गईं हैं। भारतीय संविधान में जिस तरह से केंद्र में सरकार की परिकल्पना की गई है, ठीक उसी प्रकार से राज्यों में भी सरकार की व्यवस्था संविधान द्वारा निर्धारित की गई है। केंद्र की तरह राज्यों में भी शासन का स्वरूप संसदात्मक है। केंद्र में कार्यपालिका का संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति होता है ठीक उसी प्रकार से राज्य में कार्यपालिका का संवैधानिक प्रमुख राज्यपाल होता है। देश में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत करने में, केन्द्र-राज्य के संबंधों को लोक कल्याणकारी बनाने में और संवैधानिक व्यवस्था को कायम रखने एवं दूसरी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों को बखूबी निभाने में राज्यपाल की संस्था ने अहम भूमिका निभाई है। अमेरिका जैसे देश में राज्यपाल, राज्य की जनता द्वारा चुने जाते हैं जबकि भारत में राज्यपाल राष्ट्रपति द्वारा नियुक्ति किए जाने का प्रावधान है। भारत में राज्यपाल की नियुक्ति का प्रावधान कनाडा से लिया गया है। राज्य में राज्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है। राज्यपाल पंचायतों और नगरपालिकाओं की वित्तीय स्थिति का पुनर्विलोकन करने के लिए वित्त आयोग का गठन करता है। राज्य में राज्यपाल के महत्व को दर्शाते हुए के. एम मुंशी ने कहा था कि “ राज्यपाल राज्य में केंद्र का पहरेदार तथा संवैधानिक संपत्तिका रखवाला और राज्य को केंद्र से जोड़ने वाला , देश की एकता का कर्णधार है। “ राज्यों में राज्यपाल के कर्तव्य को देखते हुए प्रत्येक वर्ष राज्यपाल और उपराज्यपाल का एक सम्मेलन आयोजित किया जाता है । इस परंपरा की शुरुआत वर्ष 1949 में राष्ट्रपति भवन से हुई थी भारत के अंतिम गवर्नर-जनरल सी. राजगोपालाचारी के अध्यक्षता में। राज्यपाल राज्य का प्रमुख होने के साथ केंद्र का प्रतिनिधित्व भी करता है। केंद्र का प्रतिनिधि और संविधान द्वारा प्राप्त स्वविवेक शक्तियों के कारण राज्य सरकारें विरोध करती हैं। संविधान के भाग छः में अनुच्छेद 153 से 167 तक राज्यपाल की नियुक्ति , शक्तियों और कार्यों के बारे प्रावधान किया है।
राज्यपाल की शक्तियाँ एवं कार्य :
राज्य का संवैधानिक प्रमुख राज्यपाल होता है।
डी. डी. बसु लिखते हैं कि “ थोड़े शब्दों में राज्यपाल की शक्तियाँ राष्ट्रपति के समान हैं सिर्फ कूटनीति , सैनिक तथा आपातकालीन शक्तियों को छोड़कर। “
कार्यपालिका की शक्तियाँ :
1. राज्य के मुख्यमंत्री की नियुक्ति और मुख्यमंत्री की सलाह पर मंत्रियों की नियुक्ति।
2. राज्य महाधिवक्ता, राज्य लोक सेवा आयोग अध्यक्ष के साथ सदस्यों , राज्य विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति, राज्य निर्वाचन आयोग एवं अन्य सदस्यों की नियुक्ति राज्यपाल करता है। उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के बारे में राष्ट्रपति को परामर्श देना।
3. राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता पर राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करना।
विधायी शक्तियाँ:
1. राज्यपाल राज्य विधानमण्डल का समय – समय पर अधिवेशन बुला सकता है तथा सत्रावसान कर सकता है। मंत्रिपरिषद की सलाह पर विधानसभा को राज्यपाल भंग कर सकता है।
2. किसी लम्बित विधेयक के संबंध में शीघ्रता से विचार करने हेतु सदन को संदेश प्रेषित कर सकता है।
3. विधानमण्डल द्वारा पारित किसी भी विधेयक को राष्ट्रपति के विचार हेतु आरक्षित करने की शक्ति राज्यपाल में निहित हैं।
न्यायिक शक्तियाँ:
1. राज्यपाल की सबसे प्रमुख न्यायिक शक्तियों में क्षमादान की शक्ति है। राज्यपाल मृत्यु दण्ड और संघसूची के मामलों में शक्तिहीन है।
2. उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एवं अन्य न्यायधीशों की नियुक्ति करता है।
विवेकाधीन शक्तियाँ:
राज्यपाल को संविधान द्वारा कुछ विवेकीय शक्तियाँ प्रदान की गई हैं ।
1. राज्यपाल द्वारा मुख्यमंत्री सहित किसी भी मंत्री के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोप के आधार पर मुकदमा चलाने की अनुमति देना स्वविवेकी शक्तियाँ हैं।
2. कुछ विशेष परिस्थितियों में विधानसभा का अधिवेशन बुला सकता है।
3. जब राज्य में एक से अधिक दल बहुमत साबित पेश करने का दावा करते हैं, तब राज्यपाल किसी एक को अपने विवेक से मुख्यमंत्री नियुक्त करता है।
वित्तीय शक्तियाँ:
1.राज्य की आकस्मिक निधि पर राज्यपाल का पूर्ण नियंत्रण होता है। वार्षिक वित्तीय विवरण विधानमण्डल के समक्ष रखवाता है।
2.राज्यपाल की बिना अनुमति के धन विधेयक विधानसभा में पेश नहीं किया जायेगा।
3. वह राज्य की आय व्यय के संबंध में भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट और राज्य लोक सेवा आयोग की रिपोर्ट विधानमण्डल के समक्ष पेश करता है।
राज्यपाल संबंधी विवाद का कारण :
राज्यपाल किसी राजनीतिक पार्टी से नहीं होता है। संविधान में राज्यपाल की परिकल्पना गैर-राजनीतिक प्रमुख के रूप में की गई है। राज्यपाल केंद्र और राज्य के बीच एक सेतु की भाँति कार्य करता है । राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख होने के साथ केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में दोहरी भूमिका में कार्य करता है। राज्यपाल की नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा की जाती है। राज्यपाल केंद्र के दिशा- निर्देश पर कार्य करता है इस वजह से राज्य सरकारें राज्यपाल की शक्तियों का केंद्र सरकार द्वारा गलत उपयोग करने के आरोप लगाती रहती हैं। केंद्र व राज्य में एक ही दल की सरकार नहीं है तो राज्य की कार्यप्रणाली में काफी समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं। राज्यपाल की स्वविवेक शक्तियाँ जैसे विधानमंडल द्वारा पारित किसी विधेयक को स्वीकृति देना या रोकना, राज्य में संवैधानिक विफलता पर राष्ट्रपति शासन की अनुसंशा करना , राज्य में चुनावों के बाद सरकार बनाने के लिये सबसे बड़ी पार्टी या गठबंधन को आमंत्रित करने हेतु राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों का अक्सर किसी विशेष राजनीतिक दल के पक्ष में दुरुपयोग किया गया है।
राज्यपाल से संबंधित समितियाँ :
राजमन्नार समिति :
राजमन्नार समिति का गठन 1970 में डॉ. पीवी राजमन्नार की अध्यक्षता में किया गया था। इस समिति ने सुझाव दिया कि राज्यपाल को केंद्र के एजेंट के रूप में नहीं देखना चाहिए। राज्यपाल को राज्य के संवैधानिक प्रमुख के रूप मे अपनी भूमिका निभानी चाहिए ।
सरकारिया आयोग:
सरकारिया आयोग के अध्यक्ष रणजीत सिंह सरकारिया थे जिसका गठन सन 1983 में किया गया। सरकारिया आयोग का सुझाव था कि अनुच्छेद 356 का उपयोग केवल अत्यंत दुर्लभ मामलों में किया जाना चाहिए।
वेंकटचलैया आयोग:
वेंकटचलैया आयोग 2002 में गठित किया गया। इसने राज्यपाल को पाँच वर्ष का कार्यकाल पूर्ण करने की सिफारिश की थी।
पुंछी आयोग :
इसे मदन मोहन पुंछी की अध्यक्षता में वर्ष 2005 में गठित किया गया था।
निष्कर्ष :
संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों को अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय संवैधानिक मान मर्यादा के सिद्धांतो को बनाए रखना चाहिए। लोकतांत्रिक व्यवस्था में सौहार्दपूर्ण संबंध होना लोकतंत्र की पहली निशानी है। लोकतंत्र में जनकल्याण की भावन निहित होती है। राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों को संवैधानिक सीमाओं का सम्मान करना चाहिए ।
कोराजोन एक्विनो लिखते हैं कि “ मेरे पास लोकतंत्र के निर्माण का कोई सूत्र नहीं है, मैं केवल यही सुझाव दे सकता हूँ कि अपने बारे में भूल जाएँ और केवल अपने लोगों के बारे में सोचें। यह हमेशा लोग होते हैं जो चीजें करते हैं। “ संवैधानिक पदाधिकारियों को एकाधिकार से बचने और अपनी निर्धारित भूमिकाओं का पालन करके, राज्य के प्रभावी शासन को सुनिश्चित करना चाहिए।
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अजय प्रताप तिवारीअजय प्रताप तिवारी, यूपी के गोंडा जिले के निवासी हैं। इन्होंने विज्ञान और इतिहास में पढ़ाई करने के बाद देश के प्रतिष्ठित अखबारों और विभिन्न पत्रिकाओं में नियमित रूप से लेखन कार्य किया है। इसके साथ ही इन्हें साहित्य और दर्शन में रुचि है। |
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