चर्चा में समान नागरिक संहिता

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  26-Jul-2023 | अंकित सिंह




विविध भाषा, संस्कृति, धर्म के ताने- बाने, अहिंसा और न्याय के सिद्धांतों पर आधारित स्वतंत्रता संग्राम तथा संस्कृति विकास के समृद्ध इतिहास द्वारा एकता के सूत्र में बंधा 'भारत' एक अनोखा राष्ट्र है।

"वसुधैव कुटुंबकम् (सम्पूर्ण विश्व एक परिवार है) भारतीय समाज की एक उदार अवधारणा एवं महान सांस्कृतिक विरासत है। इसके उत्तरोत्तर विकास के दौरान, इसने समय-समय पर विभिन्न समुदायों और उनकी जीवन शैलियों को समायोजित और एकीकृत किया है। ऐसे में आपसी समझ की भावना ने विविधता में एक विशेष एकता को सक्षम किया है जो "राष्ट्रवाद" की एक लौ के रूप में सामने आती है, जिसे पोषित और अभिलाषित करने की आवश्यकता है।

हाल ही में समान नागरिक संहिता के संदर्भ में लॉ कमीशन ने आम जनता से 28 जुलाई 2023 तक राय मांगी है जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा भोपाल में एक रैली को संबोधित करते हुए UCC के संदर्भ में आह्वान के बाद देशभर में इस मुद्दे पर चर्चा तेज हो गई है। राजनीतिक गलियारों में भी कुछ एक इसके पक्ष में है तो कुछ इसके विरोध में।

सामान नागरिक संहिता-

समान नागरिक संहिता दरअसल एक देश एक कानून की अवधारणा पर आधारित है। इसके अंतर्गत देश के सभी धर्मों, पंथों और समुदायों के लोगों के लिए एक ही कानून की व्यवस्था का प्रस्ताव है। जो सभी धार्मिक समुदायों के लिये विवाह, तलाक, विरासत, गोद लेने आदि कानूनों में भी एकरूपता प्रदान करने का प्रावधान करती है।

संविधान के अनुच्छेद-44 में देश के सभी नागरिकों के लिए एक जैसा कानून बनाने की बात कही गई है और सरकार से अपेक्षा भी की गई है कि वह धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा आदि की परवाह किए बिना सभी नागरिकों के लिए एक जैसा कानून बनाए, जिसके माध्यम से समाज में ऐसी व्यवस्था बनाई जा सके, जो मानवीय गरिमा का सम्मान करता हो, उसे सुरक्षा बोध दे, और सभ्य समाज के सभी मानकों पर खरा उतरे।

भारत में विभिन्न धार्मिक समुदायों के लिए अलग-अलग व्यक्तिगत कानून हैं और ये व्यक्तिगत कानून धार्मिक ग्रंथों और रीति- रिवाजों पर आधारित हैं। जबकि सिविल मामलों में अधिकांश कानून एक समान नागरिक संहिता का पालन करते हैं, जैसे- भारतीय अनुबंध अधिनियम-1872, नागरिक प्रक्रिया संहिता, संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम-1882, भागीदारी अधिनियम-1932, साक्ष्य अधिनियम-1872 आदि। हालाँकि राज्यों ने कई कानूनों में संशोधन किये हैं परंतु धर्मनिरपेक्षता संबंधी कानूनों में अभी भी विविधता है। वर्तमान में गोवा, भारत का एकमात्र ऐसा राज्य है जहाँ UCC लागू है।

इस बेहद संवेदनशील, मगर महत्वपूर्ण मुद्दे पर सभी पक्षों को यह ध्यान रखना चाहिए कि यह विषय नया या कृत्रिम नहीं है। इतिहास के पन्ने पलटें तो 1835 में अंग्रेजी शासन ने भी महसूस किया था कि भारत को समान संहिता की जरूरत है, लेकिन उन्होंने विभिन्न समुदायों के निजी या पारिवारिक कानूनों को छेड़े बिना ही अपराध, सबूत और अनुबंध आदि मामलों में समान कानून की वकालत अपनी रिपोर्ट में की।

आजादी के बाद भी संविधान सभा में समान संहिता पर विचारकेंद्रित बहस हुई। डॉक्टर बी. आर. अंबेडकर, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, नजीरुद्दीन अहमद ने इसके पक्ष में और बी. पोकर साहब ने इसके विपक्ष में जो कुछ भी कहा वह पढ़ने, समझने व विचार करने योग्य है।

यूनिफॉर्म सिविल कोड के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट ने भी कई बार अपनी राय स्पष्ट की है। जैसे- 1980 में मिनर्वा मिल्स केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि मौलिक अधिकार और नीति निर्देशक सिद्धांत के बीच सौहार्द और संतुलन संविधान का अहम आधारभूत सिद्धांत है, वहीं 1985 में शाहबानों केस में सुप्रीम कोर्ट ने यहां तक कहा था कि ये दुःखद है कि अनुच्छेद 44 मृतप्राय अक्षर बन गया है। जबकि 1995 में सरला मुदगल केस, 2003 में जान बलवंत केस तथा 2019 में जोस पाउलो केस में भी सुप्रीम कोर्ट ने UCC लागू न करने के संदर्भ में सरकार को फटकार लगाई और कहा कि अफसोस की बात है कि हमने अभी तक इस दिशा में अपना संवैधानिक लक्ष्य हासिल नहीं किया है जो कि चिंता का विषय है। इस प्रकार सुप्रीम कोर्ट, भारत सरकार को बारंबार याद दिलाता रहा है कि उसने समान नागरिक संहिता बनाने संबंधी संविधान के अनुच्छेद 44 के निर्देश का पालन नहीं किया है। शाहबानो केस में पूर्व न्यायमूर्ति वाई.वी. चंद्रचूड़ ने लिखा था कि संसद को समान नागरिक संहिता की रूपरेखा तैयार करनी चाहिए, क्योंकि इसी से राष्ट्रीय सामंजस्य और समानता का मार्ग प्रशस्त होगा।

वहीं कुछ वर्ष पूर्व सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने ही गोवा के दीवानी मामले में राज्य की पुर्तगाली नागरिक संहिता की तारीफ करते हुए कहा कि गोवा, एक मिसाल है, जहां प्रत्येक पंथ के नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता है।

इस संदर्भ में मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष जस्टिस अरुण मिश्रा ने भी कहा कि अब समय आ गया है कि हम अपने देश में UCC को क्रियान्वित करें, जिससे महिलाओं को भेदभाव से बचाया जा सके तथा पुरुषवाद की अवधारणा को समाप्त किया जा सके।

ऐसे में UCC के संविधान सम्मत होने के बावजूद वास्तविकता यह है कि केंद्र में सत्तारूढ़ रहने वाली किसी भी सरकार ने इस संवैधानिक प्रावधान को लागू करने की इच्छाशक्ति नहीं दिखाई। अगर देखा जाए तो न सिर्फ अमेरिका जैसे बहुलतावादी विकसित लोकतांत्रिक देश में, बल्कि पाकिस्तान, मलेशिया, तुर्किए, सूडान, मिस्र और इंडोनेशिया सरीखे देशों में भी समान नागरिक संहिता लागू है।

हां कई विकसित देशों में समान नागरिक संहिता भले न हो, लेकिन परिवार के मामले में देश के कानून ही लागू होते हैं, जो लैंगिक समानता पर आधारित हैं।

देखा जाए तो अब लगभग तीन चौथाई दुनिया लिंगभेद की परंपराएं छोड़ स्त्री-पुरुष बराबरी के सिद्धांतों को स्वीकार कर चुकी है। ऐसे में सबके लिए बराबरी की संवैधानिक प्रस्तावना वाले भारत में धार्मिक और कबाइली परंपराओं के नाम पर स्त्रियों के साथ अनुचित भेदभाव बनाए रखना उचित नहीं है। मैकेंजी के अनुसार - इस भेदभाव के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था को हर साल करीब 12 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान होता है, जिसके लगभग आधे का जिम्मेदार अकेला भारत है।

वहीं बराबरी के संदर्भ में विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र के पैमाने पर भारत का स्कोर 50 से भी नीचे है। जिसका सभी कारणों में से एक कारण भिन्न-भिन्न निजी कानूनों का होना हैं जो संपत्ति के बंटवारे, विवाह, तलाक और पारिवारिक जिम्मेदारी तक में स्त्री को बराबरी का अधिकार नहीं देते हैं।

जाने-माने अर्थशास्त्री प्रो. अमर्त्य सेन ने अपनी पुस्तक " द कंट्री ऑफ फर्स्ट ब्वॉएज" के लेखों में सिद्ध किया है कि स्त्रियों को परिवारों में बराबरी का हक न मिलना बच्चियों के कुपोषण, अशिक्षा, शोषण और आर्थिक पिछड़ेपन का बड़ा कारण है।

ऐसे में यदि देखा जाए तो समान नागरिक संहिता परिवार में उत्तराधिकार, संपत्ति के बंटवारे, विवाह, तलाक और तलाकशुदा का गुजारा भत्ते जैसे मामलों के कानून को अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के अनुरूप बनाकर उनमें एकरूपता लाता है। इसलिए इसका संबंध आस्था के बजाय सामाजिक एवं आर्थिक अधिकारों से अधिक है।

ऐसे में समान नागरिक संहिता सिद्धांततः गलत भी नहीं है क्योंकि हमारा संविधान भी नागरिकों में समानता की बात कहता है। जबकि कुछ राजनीतिक पार्टियों व संगठनों द्वारा समान संहिता की सोच को मुस्लिम समुदाय के विरुद्ध बताकर इसका विरोध किया जाता रहा है। जबकि सच यह है कि मुस्लिम ही नही, बल्कि विवाह, तलाक, गोद लेने और उत्तराधिकार आदि विषयों में हिंदू समुदाय में भी धार्मिक परंपरागत कानून हैं। सिख और जैन समुदाय में भी हिंदू लॉ चलता है, जबकि ईसाई और पारसी समुदाय के लिए अलग पर्सनल लॉ है।

ऐसे में आवश्यक है कि सभी व्यक्तिगत कानूनों में से प्रत्येक में पूर्वाग्रह और रूढ़िवादी पहलुओं को रेखांकित कर मौलिक अधिकारों के आधार पर उनका परीक्षण किया जाय। समान नागरिक संहिता को धार्मिक रूढ़िवादिता की बजाय चरणबद्ध तरीके से इसे लोकहित के रूप में स्थापित किया जाना अपेक्षित भी है और आवश्यक भी।

यह सच है कि UCC के लागू होने से भारत जैसे देश में जहां विभिन्न धर्मों को मानने वाले लोग रहते हैं, के बीच धार्मिक मतभेदों को कम करने में मदद मिलेगी, कमजोर वर्गों को सुरक्षा मिलेगी, कानून सरल होंगे, न्यायिक प्रणाली सरल-सहज होगी, विवाह, तलाक, उत्तराधिकार संबंधी नियमों में समानता आयेगी तथा धर्मनिरपेक्षता के आदर्श का पालन करते हुए लैंगिक न्याय को सुनिश्चित किया जा सकेगा। जिससे सदियों पुरानी परंपराओं में भी सकारात्मक बदलाव देखने को मिलेगा। ऐसे में यह कहना गलत न होगा कि 21वी सदी के लिए पर्सनल लॉ अब प्रासंगिक भी नहीं हैं।

इसलिए अब समय आ चुका है कि इस मुद्दे को टालने के बजाय इसका हल निकाला जाए जिससे कि आने वाली पीढ़ियों को उन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विवादों को न झेलना पड़े जिसका आज की पीढ़ी ने सामना किया या कर रही है। दुनिया जब तेजी से आगे बढ़ रही है, तो ऐसे में हम कहीं पीछे न छूट जाएँ, इसके लिए आवश्यक है कि दशकों पुराने मुद्दे जो देश के विकास एवं एकता को बाधित तथा कमजोर कर रहें हैं उनका हल निकाला जाय। जिससे केंद्र एवं राज्य सरकारें पुरानी समस्याओं के समाधान में ऊर्जा लगाने के बजाय देश को सतत विकास की अवधारणा पर आगे ले जाने हेतु प्रयत्नशील रहें।

लेकिन इस दिशा में कुछ चुनौतियां भी हैं जिसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता , जैसे-

विविध व्यक्तिगत कानूनों का होना, इससे सांप्रदायिकता की राजनीति को भी बढ़ावा मिल सकता है, संवैधानिक बाधा (भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25, जो किसी भी धर्म को मानने और प्रचार की स्वतंत्रता को संरक्षित करता है, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में निहित समानता की अवधारणा के विरुद्ध है) राजनीतिक इच्छाशक्ति और सर्वसम्मति के अभाव का होना, व्यावहारिक कठिनाइयाँ और जटिलताएँ आदि।

ऐसे में आवश्यक है कि समान नागरिक संहिता को विकसित करने और इसे लागू करने की प्रक्रिया में धार्मिक नेताओं, कानूनी विशेषज्ञों एवं समुदाय के प्रतिनिधियों सहित सभी हितधारकों को शामिल किया जाना चाहिये। इससे यह सुनिश्चित करने में मदद मिल सकती है कि समान नागरिक संहिता में विभिन्न समूहों के विविध दृष्टिकोण एवं आवश्यकताओं को ध्यान में रखा गया है, विधि आयोग का लक्ष्य केवल उन प्रथाओं को समाप्त करना होना चाहिये जो संवैधानिक मानकों को पूरा नहीं करती हैं, हमारा ध्यान एक ऐसी न्यायसंगत संहिता प्राप्त करने पर होना चाहिये जो समानता और न्याय को बढ़ावा दे।

हां यह सच है कि समान नागरिक संहिता का क्रियान्वयन सरकार और प्रत्येक हितधारक के लिए एक चुनौतीपूर्ण कार्य होगा। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि इस राष्ट्रव्यापी यज्ञ में हम सब अपनी पुण्य आहुति प्रदान करें, जिससे संविधान में वर्णित समानता की पराकाष्ठा को स्थापित एवं सत्यापित किया जा सके।

संभवतः संविधान निर्माताओं ने यह संवेदनशील विषय भविष्य के लिए इसलिए खुला छोड़ दिया होगा कि न सिर्फ सरकार बल्कि समाज के अग्रणी लोग भी समान कानून की दिशा में बढ़ने के लिए समाज को तैयार करेंगे। ऐसे में भारत जैसे विविधतापूर्ण, विकासशील, विशालकाय देश में समान नागरिक संहिता का कार्यान्वयन समय की मांग ही नहीं अपितु संविधान का मान भी है।

इस संदर्भ में अर्चित वशिष्ठ ने सच ही कहा है-

"नियम संहिता एक समान हो, समता का सबको गुमान हो, हर मजहब का मान रहे पर, पहला मजहब संविधान हो।"

  अंकित सिंह  

अंकित सिंह उत्तर प्रदेश के अयोध्या जिले से हैं। उन्होंने UPTU से इलेक्ट्रॉनिक्स एंड कम्युनिकेशन में  स्नातक तथा हिंदी साहित्य व अर्थशास्त्र  में परास्नातक किया है। वर्तमान में वे दिल्ली स्कूल ऑफ सोशल वर्क  (DU) से सोशल वर्क में परास्नातक कर रहे हैं तथा सिविल सर्विसेज की तैयारी करने के साथ ही विभिन्न वेबसाइटों के लिए ब्लॉग लिखते हैं।



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