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भारत में खाद्य सुरक्षा की स्थिति

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  13-Jun-2023 | अंकित सिंह



जीवन के लिए भोजन उतना ही आवश्यक है जितना कि सांस लेने के लिए वायु। लेकिन खाद्य सुरक्षा मात्र दो जून की रोटी पाना नहीं है, बल्कि उससे कहीं अधिक है। खाद्य सुरक्षा का अर्थ है, सभी लोगों के लिए सदैव भोजन की उपलब्धता, पहुंच और उसे प्राप्त करने का सामर्थ्य।

यहां खाद्य उपलब्धता का तात्पर्य देश में खाद्य उत्पादन, खाद्य आयात और सरकारी अनाज भंडारों में संचित पिछले वर्षों के स्टॉक से है। वहीं पहुंच का अर्थ है कि खाद्य प्रत्येक व्यक्ति को मिलता रहे, जबकि सामर्थ्य का अर्थ है लोगों के पास अपनी भोजन आवश्यकताओ को पूरा करने के लिए पर्याप्त और पौष्टिक भोजन खरीदने के लिए धन उपलब्ध हो।

स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय नीति-निर्माताओं ने खाद्यानों में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के सभी उपाय किए। भारत ने कृषि में एक नई रणनीति अपनाई, जिसकी परिणति हरित क्रांति में हुई, विशेषकर गेहूं और चावल के उत्पादन में।

70 के दशक के प्रारंभ में हरित क्रांति के आने के बाद से मौसम के विपरीत दशाओं में भी अकाल जैसी समस्या देश के किसी भी हिस्से में  उत्पन्न नहीं हुई। ऐसे में अकाल और भुखमरी को करारी शिकस्त देकर भारत ने खाद्य सुरक्षा के क्षेत्र में व्यापक सुधार किया है और आज हमारे देश के अन्न भंडारों में लगातार बढ़ती आबादी को पर्याप्त भोजन उपलब्ध कराने का सामर्थ्य है तथा किसी आकस्मिकता से निपटने के लिए यथेष्ट अनाज सुरक्षित भंडारों में भी मौजूद है।

भारत में खाद्य सुरक्षा का वर्तमान ढांचा-

स्वतंत्रता के बाद से ही भारत सरकार व योजनकारों के सकारात्मक प्रयासों व देश भर में उपजाई जाने वाली विविध फसलों के कारण भारत पिछले 50 वर्षों के दौरान अन्न के मामले में आत्मनिर्भर बन गया है, पिछले कुछ वर्षों में आई तमाम आपदाओं (प्राकृतिक व मानवीय) के बावजूद भी हमारे देश में खाद्य असुरक्षा की स्थिति उत्पन्न नहीं हुई। हालांकि भारतीय संविधान में खाद्य या भोजन के अधिकार (right to food) के संबंध में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है, लेकिन संविधान के अनुच्छेद-21 में निहित जीवन के मूल अधिकार की व्याख्या में मानवीय गरिमा के साथ जीने के अधिकार को निहित माना जा सकता है और इस क्रम में इसके अंतर्गत भोजन का अधिकार एवं अन्य मौलिक आवश्यकताएं भी शामिल हो जाती हैं।

भारतीय खाद्य निगम (FCI) किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य (msp) पर खाद्यानों की खरीद कर विभिन्न स्थानों पर अवस्थित अपने गोदामों में इन्हें संग्रहीत रखता है, और आवश्यकतानुसार राज्य सरकारों को इसके माध्यम से आपूर्ति भी की जाती है। ऐसे में यह बफर स्टॉक हमारे देश के किसी भी हिस्से में आई आपदा से निपटने में अहम भूमिका निभाता है।

 भारत जैसे विशाल और आर्थिक विषमताओं वाले देश में दूरदराज के दुर्गम इलाकों तक और समाज के सबसे कमजोर वर्ग तक अनाज की भौतिक और आर्थिक पहुंच सुनिश्चित करना एक कठिन चुनौती भी है। परंतु अनुकूल नीतियों, कारगर योजनाओं और प्रभावी क्रियान्वयन ने इस कार्य को बखूबी अंजाम दिया। सन् 1960 के दशक में देश भर में स्थापित की गई सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) का उद्देश्य समाज के सभी वर्गों तक उचित मूल्य पर अनाज को सुलभ करना था जिससे देश में अनाज की कमी होने पर भी खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित रहे। इसके लिए अनाज की खरीद, भंडारण, परिवहन और आम जनता तक वितरण की एक मजबूत प्रणाली विकसित की गई। जिससे उपभोक्ता को उचित कीमत की राशन की दुकानों के माध्यम से एक निश्चित मात्रा में अनाज उपलब्ध कराया जाता है।

समय के साथ अनाज उत्पादन और सामाजिक-आर्थिक स्तर में हुए बदलाव के कारण इस प्रणाली की नीति में भी लगातार बदलाव हुआ और आज इसे लक्षित-सार्वजनिक वितरण प्रणाली(TPDS) के रूप में लागू किया जा रहा है। इसकी शुरुआत सन् 1997 में गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे परिवारों (BPL) को प्रत्येक महीने 10 kg अनाज कम कीमत पर उपलब्ध कराने के साथ की गई। ऐसे में अनाज की उपलब्धता बढ़ने के साथ अनाज की मात्रा भी बढ़ती गई और आज प्रत्येक गरीब परिवार को 35kg अनाज प्रत्येक महीने उपलब्ध कराया जाता है।

ऐसे में TPDS को अधिक कुशल, पारदर्शी और असरदार बनाने के लिए राज्य सरकारों ने अपने-अपने स्तर पर अनेक उपाय किए हैं, जिसमें आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी (IT) महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही है। डिजिटल इंडिया के अंर्तगत कई राज्यों ने इस प्रणाली को ऑनलाइन कर दिया है। जिसके द्वारा अनाज की प्राप्ति, परिवहन की स्थिति, जारी अनाज की मात्रा और BPL कार्डधारकों के विवरण तथा अन्य जानकारी पारदर्शी रूप से सबके सामने है।

खाद्य सुरक्षा के दायरे को व्यापक बनाने और समाज के गरीब से गरीब तबके तक अनाज पहुंचाने व उनकी आय वृद्धि के उद्देश्य से सरकार ने कई योजनाएं प्रारंभ की, जैसे-  एकीकृत बाल विकास सेवाएं (ICDS-1975), काम के बदले अनाज (1977-78), अंत्योदय अन्न योजना (2000) ।

चूंकि समाज में कुछ गरीब परिवार ऐसे भी हैं, जो राशन की दुकानों से कम कीमत पर अनाज खरीदने में भी सक्षम नहीं हैं। आंकड़ों के मुताबिक इनकी संख्या भी करोड़ों में है और इनकी पारिवारिक आमदनी 250 रू प्रति माह से भी कम है। इन परिवारों को पहचान कर इनके लिए विशेष  अंत्योदय कार्ड बनाए गए, जिनके आधार पर इन परिवारों को प्रति माह 35kg अनाज उपलब्ध कराया जाता है। जिसकी कीमत गेहूं के लिए मात्र 2 रू प्रति किलो और चावल के लिए 3 रू प्रति किलो निर्धारित की गई है।

देश के प्रत्येक नागरिक के लिए खाद्य और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करनें के क्रम में सबसे बड़ा और व्यापक कदम सन् 2013 में उठाया गया, जब भारत सरकार ने खाद्य सुरक्षा को नागरिकों का अधिकार मानते हुए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 नामक कानून पारित किया। इसके अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्रों की 75% आबादी और शहरों की 50% आबादी को बेहद कम कीमत पर TPDS के अंतर्गत अनाज उपलब्ध कराने का प्रावधान किया गया है। इस तरह देश की लगभग 67% आबादी खाद्य सुरक्षा के दायरे में आ गई। इसके अंतर्गत चुने गए प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिमाह 5kg अनाज उपलब्ध कराया जाता है, जिसकी कीमत चावल के लिए 3 रू, गेहूं के लिए 2 रू और मोटे अनाजों के लिए 1 रू प्रति किलो रखी गई है। इसके अंतर्गत 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों, गर्भवती महिलाओं तथा शिशु को दूध पिलाने वाली महिलाओं ( शिशु के जन्म के छह महीने बाद तक) को पोषक आहार दिए जाने की भी व्यवस्था की गई है।

इन योजनाओं में हाल के वर्षों में प्रारंभ की गई प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, राष्ट्रीय कृषि बाजार, परंपरागत कृषि विकास योजना, ISOPOM (तिलहन, दलहन, पाम ऑयल और मक्का पर एकीकृत योजनाएं)   खाद्य सुरक्षा की दिशा में प्रमुख है।

उल्लेखनीय है कि इन योजनाओं के माध्यम से छोटे और सीमांत किसानों तक लाभ पहुंचाने का विशेष प्रयास किया गया, क्योंकि किसानों के इस वर्ग को देश की खाद्य और पोषण सुरक्षा का सबसे प्रमुख अंशदाता माना जाता है।

ऐसे में खाद्य के साथ पोषण सुरक्षा को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से फलों और सब्जियों का उत्पादन बढ़ाने के लिए समग्र प्रयास किए गए, जिसके फलस्वरूप इस क्षेत्र में भारत ने दूसरा स्थान हासिल कर लिया है, वहीं दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में  भारत सम्पूर्ण विश्व में पहले स्थान पर है जो अपने आप में एक कीर्तिमान है। इस प्रकार खाद्य और पोषण को आधार देनेें वाली इन जिंसों के उत्पादन में रिकार्ड वृद्धि से खाद्य और पोषण सुरक्षा को एक मजबूत आधार मिला है।

सन् 1960 के दशक में हरित क्रांति के सूत्रपात ने भारत को पहली बार अन्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाया। इसी के साथ यह भी सुनिश्चित हुआ कि कृषि और संबंधित उद्यमों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के प्रयोग से उत्पादकता को कई गुना तक बढ़ाना संभव है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के नेतृत्व में लिए निर्णयों और किए गए प्रयासों का ही परिणाम है कि सम्पूर्ण विश्व में भारत का  गेहूं और चावल के उत्पादन में द्वितीय स्थान है, जबकि नकदी फसल गन्ना के उत्पादन में द्वितीय तथा कपास के उत्पादन में प्रथम स्थान है।

कृषि  जिंसों के उत्पादन के ये प्रभावशाली आंकड़े कृषि अनुसंधान एवं विकास के साथ कृषि विकास एवं किसान कल्याण की उन योजनाओं की ओर भी संकेत करते हैं, जिनके माध्यम से किसानों को उत्पादकता बढ़ाने के लिए तकनीकी सहायता, कृषि आदान, कृषि ऋण, बाजार सुविधा आदि उपलब्ध कराई गई।

चुनौतियां-

देश की खाद्य एवं पोषण सुरक्षा को लंबे समय तक सतत बनाए रखना एक कठिन चुनौती है, क्योंकि जनसंख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। अध्ययनों से पता चला है कि यदि देश के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में सात प्रतिशत (7%) की वृद्धि दर मानी जाए तो वर्ष 2050 में अनाज की मांग 50% तक बढ़ सकती है।

'ग्लोबल वार्मिंग' की वैश्विक आपदा को खाद्य सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा माना जा रहा है। वैज्ञानिक अनुमानों के अनुसार-  यदि हम औसत तापमान की बढ़ोतरी पर कोई सार्थक रोक नहीं लगा पाते तो सन् 2050  तक औसत तापमान में 2.2 से 2.9 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि हो सकती है। इससे रबी, खरीफ फसलों के साथ- साथ फलों , सब्जियों, दूध उत्पादन, मत्स्य उत्पादन पर भी चोट पड़ने की संभावना जताई जा रही है।

खाद्य सुरक्षा को सतत बनाए रखने के लिए आवश्यक भूमि की उपलब्धता भी लगातार कम होती जा रही है। वर्ष 2050 में प्रति व्यक्ति भूमि उपलब्धता 2010-11 के 0.13 हेक्टेयर से घटकर मात्र 0.09 हेक्टेयर रह जायेगी, जो एक चिंता का विषय है।

इसके साथ ही कृषि भूमि का लगातार अन्य विकास कार्यों, आवास के लिए उपयोग होना तथा कृषि के लिए ऊर्जा की कमी, भूमि का क्षरण और जैव -विविधता का ह्रास, पशुओं में महामारी प्रकोप की संभावना, अस्थिर बाजार मूल्य प्रणाली, जल-जमाव, खाद्य प्रबंधन नीति का अभाव भी खाद्य सुरक्षा को चोट पहुंचाने वाले अन्य महत्वपूर्ण कारक है।

अवसर और संभावनाएं-

खाद्य सुरक्षा पर मंडराते खतरों को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय स्तर पर विशेष कार्य योजनाएं बनाई गई, जो खाद्य सुरक्षा को सतत बनाने में सहायक होंगी। जैसे- भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के नेतृत्व में देश में 'क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर' विकसित करना, इसके अंतर्गत किसानों को जलवायु अनुकूल कृषि तकनीक अपनानें के लिए जागरूक एवं सक्षम बनाया जा रहा है।

सिंचाई के पानी की कुशलता बढ़ाने के लिए टपक सिंचाई, फुव्वारा सिंचाई जैसी सूक्ष्म और कुशल तकनीक विकसित की गई हैं, जैसे- 'पर ड्रॉप मोर क्रॉप' राष्ट्रीय कार्यक्रम इस दिशा में एक अहम पहल है।

भूमि की उर्वरता बनाए रखनें के लिए 'स्वस्थ धरा, खेत हरा' जैसे कार्यक्रम शुरू किए गए है, जिसके अंतर्गत किसानों को बड़े पैमाने पर 'सॉइल हेल्थ कार्ड' जारी किए जा रहे हैं।

फसलों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए 'जेनेटिक इंजिनियरिंग' की बेहद क्षमतावान विधा तकनीकी रूप से हमारे पास उपलब्ध है, जिसका उपयोग करके कृषि क्षेत्र में चमत्कारी बदलाव लाए जा सकतें है

पिछले कुछ वर्षों से सतत् कृषि की अवधारणा भी विकसित हुई है, जिसके अंतर्गत प्राकृतिक संसाधनों के कुशल और सतत् उपयोग द्वारा कृषि प्रक्रियाएं संपन्न की जाती हैं। उर्वरकों और कीटनाशकों के संदर्भ में नैनो -टेक्नोलॉजी का उपयोग नई संभावनाएं उत्पन्न कर रहा है।

साथ ही बदलते परिवेश के अनुसार नई नीतियों व योजनाओं को अपनाए जानें की आवश्यकता है, जिससे फसल कटाई, प्रसंस्करण, भंडारण और वितरण के दौरान होने वाले नुकसान को कम करनें के लिए हमें एक स्पष्ट व प्रभावशाली नीति बनानी होगी।

इसी प्रकार भोजन व अन्य खाद्य पदार्थों के अपव्यय पर भी प्रभावी अंकुश लगाकर, आधारभूत संरचना के विकास को प्राथमिकता देकर, 'वन नेशन वन राशन कार्ड योजना' को सुदृढ़ बनाकर, जलवायु- प्रत्यस्थि फसलों (climate resilient crops) को प्रोत्साहन देकर तथा कृषि कूटनीति को अपनाकर खाद्य सुरक्षा को एक नई दशा व दिशा प्रदान कर सकतें हैं।

किसी ने सच ही कहा है- "भूख से मौत सम्पूर्ण मानवता के नाम पर काला धब्बा है।" 

ऐसे में केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा लागू की जा रही समाज कल्याण योजनाओं व कार्यक्रमों को अधिक मजबूत और पारदर्शी बनाने की आवश्यकता है, जिससे कि समाज के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को निरंतर खाद्य सुरक्षा का लाभ मिलता रहे।

इस प्रकार देश की 1.40 अरब आबादी के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करनें में कृषि-अनुसंधान एवं विकास ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है, जिससे फसल, बागवानी, पशु-पक्षी उत्पादों के कुल उत्पादन और उत्पादकता में क्रांतिकारी वृद्धि हुई है। यह क्रम और प्रयास पहले से अधिक गहनता और तत्परता के साथ जारी है।

इसीलिए तमाम चुनौतियों के बावजूद खाद्य सुरक्षा का भविष्य उज्ज्वल और सुरक्षित दिखाई देता है और हम संपूर्ण देशवासियों को आशा के साथ विश्वास भी है कि भारत में खाद्य सुरक्षा निरंतर और सतत् बनी रहेगी।

  अंकित सिंह  

अंकित सिंह उत्तर प्रदेश के अयोध्या जिले से हैं। उन्होंने UPTU से इलेक्ट्रॉनिक्स एंड कम्युनिकेशन में स्नातक तथा हिंदी साहित्य व अर्थशास्त्र में परास्नातक किया है। वर्तमान में वे दिल्ली स्कूल ऑफ सोशल वर्क (DU) से सोशल वर्क में परास्नातक कर रहे हैं तथा सिविल सर्विसेज की तैयारी करने के साथ ही विभिन्न वेबसाइटों के लिए ब्लॉग लिखते हैं।



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