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कहां से आया संगीत...कैसे आया?

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  19-Mar-2024 | संजय श्रीवास्तव



कहां से आया संगीत..? कैसे आया..? किसने बनाया..? संगीत तो हमेशा से दुनिया में था, तब से ही जब से ये दुनिया बनी..। शायद उससे भी पहले से संगीत इस दुनिया में था, जब हमारे पास भाषाएं नहीं थीं, हमें बोलना नहीं आता था। संगीत का साथ शायद तब से है..जब दुनिया में आदमी आया..उसके गले में आवाज तो थी लेकिन वो इसका इस्तेमाल कैसे करे..उसे इसका पता नहीं था...आवाजें जब गले से निकलती थीं तो अजीबो गरीब तरह से...लेकिन जल्दी ही उसे अहसास हो गया महज इन आवाजों के जरिए भी वह अपनी भावनाएं तो जाहिर कर ही सकता है...जब वह खुश होता तो गले से मधुर और मीठी आवाज निकालता...इसमें कुछ लय होती, जब नाराज होता तो भी महज अपनी आवाज के जरिए इसका अहसास करा देता यानि जीवन के हर रंग को उसे आवाजों में पिरोना आ गया था...यहीं से संगीत का जन्म हुआ..यानि जब हमें बोलना भी नहीं आता था तब संगीत हमारे जीवन में था... जो हमारे सुख दुख का साथी था..जो हमारी भावनाओं का इजहार का भी माध्यम था। यही सिलसिला जब आगे बढ़ा तो इन आवाजों को आदिम मानव ने संगीतमय शैली में ढालकर नृत्य करने की शैली भी ईजाद कर ली। आदिम मानव मुंह से अजीब तरह की लयपूर्ण आवाजें निकालते और सुख-दुख में अजीबोगरीब तरीके से डांस करते। इससे आप ये भी समझ गये होंगे संगीत में जरूरी नहीं शब्दों की जरूरत हो ही..लयों की ध्वनिपूर्ण अदायगी ने संगीत की परंपराओं को सही मायनों में जन्म दिया। इन लयों और संगीत की समझ में हमारे आदिम काल के पूर्वजों और उनके बाद सम्यता की ओर कदम बढाने वाले खानाबदोश कबीलों के पूर्वजों में आ चुकी थी...आगे बढ़ती जीवन यात्रा में जब मनुष्य को भाषाएं मिलीं और गले की आवाजें महज ध्वनि नहीं बनकर शब्द और अक्षर में ढलीं तो संगीत की भी नई यात्रा शुरू हुई..फिर जिस तरह मनुष्य सभ्यता के सोपना पर आगे बढ़ता रहा और जीवन बदलता गया उसी तरह संगीत को लगे पंख भी नई नई उडान भरते गये।

इसके बाद आये वो यंत्र और साजोसामान...जिन्होंने संगीत को और रवानगी दी..यानि संगीत के स्वरों को आवाज देने के लिए गले के साथ कुछ और सामान भी हमारे आदिम काल के पूर्वजों को मिल गये। करीब 20हजार साल पहले के अवशेष इस ओर संकेत भी करते हैं।

आदिम युग की गुफाओं के पास पुरातत्व वैज्ञानिकों को हड्डी की बांसुरी मिली है..जिससे पता लगता है कि पाषाण काल में पोली हड्डी का इस्तेमाल बांसुरी के रूप में किया गया होगा, फिर लकड़ी की बांसुरी बनाई गई होगी। माना जाता है कि मानव का पहला संगीत यंत्र यही हड्डी वाली बांसुरी थी। इसी दौरान उसने कहीं पेडों के खोखले गोलाकार तनों को काटकर जब इस पर चमड़े का खोल चढाया होगा तो इस पर थाप देते ही उसे अद्भुत आवाजें सुनने को मिली होंगी...वैसे कहा जाता है कि पहली बार जब उसने खुद ये आवाज सुनी तो उसे डर भी लगा, इसके पीछे उसे दैवीय शक्ति की अनुभूति महसूस हुई। लेकिन बाद में यही बांसुरी और थाप देने वाले ढोल उसकी संगीत के शुरुआती साथी बने। ये बांसुरी और ड्रम भी उस दौर में दुनिया के अलग अलग क्षेत्रो में अलग तरह से विकसित हुए। हर महाद्वीप में बांसुरी और ड्रम के आकार प्रकार भी अलग थे। कहीं बासुरी बहुत छोटी थी तो कहीं दो मीटर लंबी..कहीं ड्रम छोटे आकार का तो कहीं बेहद विशालकाय...एक और संगीत यंत्र भी इस पाषाण काल में खासा प्रचलित था तो वो जलतरंग जैसा संगीत का यंत्र था, जिसके हर छोर से संगीत के स्वरों की अलग तरह की लहरें निकलती थीं। आस्ट्रेलिया के जनजातीय इलाकों में अभी भी दो-ढाई मीटर की बांसुरी जबरदस्त फूंक मारकर बजाई जाती है, इसे वहां डिडगेरीडू कहा जाता है। बताया जाता है कि हड्डी की जो शुरुआती बांसुरी बनी वो उस विशालकाल हाथियों के सूंड से बनाई जाती थी। पाषाण काल में ज्यों ज्यों ध्वनि का महत्व हमारे आदिम पूर्वजों को पता चला होगा, तब उन्होंने तमाम चीजों से आवाजें निकालकर उन्हें संगीतमय बनाने की कोशिश की होगी। उसमें पत्थर से लेकर लकड़ी आदि सभी शामिल रहे होंगे।

हर क्षेत्र में संंगीत का अलग ढंग से विकास हुआ..उस पर अलग छाप पड़ी...उसकी अलग शैली और खासियतें प्रचलित हुई। दुनियाभर में संगीत की हजारों बल्कि लाखों शैलियां हैं. हर सौ कोस पर संगीत पर इलाके का पानी चढ़ा, उसे अलग बोली और अंदाज में पिरोया गया और अक्सर हर इलाके ने अपने संगीत के खास यंत्र भी विकसित किये।

अपने देश में भी संगीत की परंपरा प्रागैतिहासिक काल जितनी पुरानी है। सिंधु घाटी काल खुदाई में एक एक नृत्य बाला की मुद्रा में कांस्य की प्रतिमा मिली। यानि करीब ईसा से करीब तीन हजार पहले संगीत हमारे जनमानस में बसा हुआ था। संगीत और नृत्य की विधाएं विकसित हो चली थीं। जब वैदिक काल की शुरुआत हुई तो संगीत भजन और मंत्रों के रूप में ढलकर सामने आया। उस युग में हमारे समाज में संगीत से उपजी काव्यात्मकता इस कदर चरम पर थी कि हमारे सबसे महान ग्रंथ रामायण और महाभारत महाकाव्य के रूप में निकल कर आये जो गद्य नहीं बल्कि पद्य थे। ऋगवेद, यजुर्वेद सभी में संगीत पर खासा प्रकाश डाला गया। इसमें संगीत के वाद्य यंत्रों, उत्पत्ति और बजाने के तौर तरीकों का विस्तार से वर्णन किया गया है, राग हमारी सभ्यता में शुरू से हैं। भारतीय संस्कृति में संगीत के आदिप्रेरक शिव और सरस्वती हैं। माना जाता है कि संगीत का ज्ञान हमारे पूर्वजों, महर्षियों और मनीषियों को सीधे ईश्वर से हासिल हुआ था। पांचवीं शताब्दी में मतंग मुनि ने संगीत के बारीक पहलूओं पर ..वृहददेखी..लिख दिया।

प्राचीन काल में भारतीय संगीत को दिव्य और अलौकिक माना जाता था और उसका संबंध ऋषियों और मुनियों से होता था। धर्म, आध्यात्म और साधना के वातावरण में ही उसका जन्म और विकास हुआ। मंदिरों और आश्रमों में उसका पालन-पोषण हुआ। वैदिक संगीत और गंर्धवों का संगीत, इन दोनों का करीब एक ही तरह के वातावरण में विकास हुआ। मंदिर के अलावा राजमहल और राजदरबार भी संगीत के मुख्य केंद्र बने। यहां तक कि संगीत, नृत्य के आयोजन आम जनता के लिए किया जाता था। राजा-महाराजा संगीत की उन्नति और संगीतज्ञों का उचित तरीके से संरक्षण करते थे। वह उन्हें वेतन, पारितोषिक और धन-जमीन वो सब देते थे, जिससे वो शांतिपूर्ण जीवन में संगीत की साधना कर सकें।

हां, ये बात सही है कि फारस से मुस्लिम शासकों के भारत आने के बाद हमारे देश में संगीत का नया सफर शुरू हुआ। फारसी संगीत और भारतीय शास्त्रीय संगीत के मिश्रण का दौर शुरू हुआ। असर भारतीय संगीत पर पडऩा ही था। संगीत-संरक्षण का काम मुगल और पठान शासकों ने भी किया। अलाउद्दीन खिलजी का दरबार अपने संगीत और संगीतज्ञों के लिए प्रसिद्ध था। उत्तरी भारत में सबसे पहला संगीत सम्मेलन जौनपुर के सुल्तान हुसैन शर्की ने आयोजित किया था। ग्वालियर के राजा मान सिंह तोमर ने संगीत की एक संस्था को स्थापित किया था, जिसमें संगीत के चार श्रेष्ठ नायक थे जिनका काम संगीत सुनाना और संगीत चर्चा की गोष्ठियों का आयोजन करना था। इसी दौर में खास ध्रुपद शैली का विकास हुआ।

भारतीय संगीत का सुनहरा युग अकबर के राज्यकाल में आया, जिसके दरबार में एक दो नहीं बल्कि 36 संगीतज्ञ थे। जिसमें बैजु बावरा, तानसेन, रामदास और तानसेन जैसे महान गायक शामिल थे। बादशाह अकबर को घंटों संगीत सुनने की आदत थी। शाहजहां भी संगीतकारों की बहुत कद्र करते थे बल्कि वह खुद भी खासा अच्छा गाते थे। मुगल साम्राज्य के अंतिम दिनों में बादशाह मुहम्मद शाह जफर के दरबार में संगीत की चहल पहल होती थी और उसका बोलबाला था। अंग्रेजों के शासनकाल में संगीत का सुहाना सफर थोड़ा प्रभावित जरूर हुआ लेकिन सुर-संगीत का जादू फिर छाने लगा है। संगीत का रूहानी अहसास पंख फैलाये फिर नई ऊंचाइयां छूने को बेताब लगता है।



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